Thursday, May 16, 2024
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व्यंग्य का वैक्सीन : ज्योति मित्र आचार्य 

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बीकानेर abhayindia.com वो बचपन से ही प्रतिभाशाली रहे है। उधर हमें भी अपने बचपन से एक गुरू की तलाश थी। इसलिए हमनें उन्हें द्रोणाचार्य मान खुद को एकलव्य मानकर सन्तोष कर लिया। द्रोणाचार्य जैसे बॉस का सबऑर्डिनेट एकलव्य बनने को आप हमारा बचपना कह सकते है। पिछले दिनों कोरोना के शोर में जब हमारे गुरुजी ने सुना कि यदि इस रोग की वैक्सीन आ जाए तो दुनिया उस महान वैज्ञानिक को मरते दम तक नहीं भूलेगी।

गुरुजी का बचपन से सपना था कि लोग उन्हें मरते दम तक याद रखे। बस उसी दिन से वे  वैक्सीन बनाने के लिए हाथ पैर मारने लगे। जब दाल गलती नजर नहीं आई तो उन्होंनें लिखने के नाम पर जो हरकत की उसे उन्होंने न सिर्फ  उसे  व्यंग्य मान लिया वहीं अपने रौबदार व्यक्तित्व से लोगों को उसे व्यंग्य मानने के लिए मजबूर कर दिया। उधर बताते है उनके एक चेले ने गुरुदक्षिणा में  कह दिया आपके अंदर एक अच्छे व्यंग्यकार बनने के सारे लक्षण मौजूद है।

ये क्या चमत्कार हो गया! कोरोना वैक्सीन तो बनी नहीं लेकिन व्यंग्य की वैक्सीन जरूर बन गई! वैक्सीन भी ऐसी जिसका यदि एक बार डोज ले लिया तो सालों तक कोई पाठक व्यंग्य तो क्या अपना नाम भी पढ़ने की हिमाकत नहीं करेगा। इतने पर भी नहीं रुके गुरुजी आखिर समाज के प्रति भी तो कुछ दायित्व है इसलिए अपनी व्यंग्य वैक्सीन की  सप्ताहिक डोज देने लगे। इस वैक्सीन के बनने में कोई केमिकल लोचा ही रहा होगा तभी तो हास्य व करुण रस का घालमेल हो गया। इस वैक्सीन के लगते ही आम पाठक दहाड़े मार कर भले ही न रोए लेकिन रुआंसा होने का साइड इफेक्ट तो भुगतता ही है। कोरोनाकाल में गुरुजी भी शेष भारत की तरह डिजिटल हो गए है इस कारण प्रति सप्ताह मोबाइल से व्यंग्य वैक्सीन की खुराक देते है व जिम्मेदार वैज्ञानिक की तरह साइड इफेक्ट की जानकारी मांगते है। अब उनको कौन समझाए  यहां तो पूरा इफेक्ट ही आ गया साइड की तो बात ही अलग है।

कोरोना ने समाज के अलावा साहित्य में भी गंभीर दखल दिया है। मुझे पहले से ही कोरोना प्रेम विरोधी लगता था। इसके कारण चांद जैसे मुखड़ों को मुए मास्क में कैद होना पड़ा। इस कोरोनाकाल में ‘शारीरिक-दूरी’ और ‘मुंहबंदी’ जैसे टोटके तो रोड रोमियो पर कहर बनकर टूटे हैं। हसीनाओं को नकाब में ही रहने के फरमान के चलते कई प्रेम कहानियों की भ्रूण हत्या हो गई। इससे हमारे कवि भाव विहीन हो गए। उधर गुरुजी ने कविता से पल्ला झाड़ कुछ ऐसा लिख मारा है कि  विश्वास होने लगता है कि वे परसाई जी की परंपरा से जुड़ गए है। जुड़ क्या गए उनसे आगे निकल गए! परसाई जी के जाने के इतने सालों बाद लेखन कर रहे है तो उनसे आगे का ही लेखन हुआ ना! उनके विषय भी गजब है। इधर जब से वे व्यंग्यकार बने है। व्यंग्य में विषयों का टोटा पड़ गया है। अब तो लगता है एक ही विषय बचा है वो है विषय वासना का !

ये बात तो वैज्ञानिक भी मानते है कि कोरोना का अंतिम आसरा स्वर्ग है जिन्होंने भी गुरुजी की व्यंग्य वैक्सीन नहीं ली उन पर खतरा तो मंडरा ही रहा है। शहर की साहित्यिक सेलिब्रिटी इस वैक्सीन के आने से कुंठित हो रही है। कोई कुंठित हो या राजी कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन इन सब के बीच इस वैक्सीन पर संदेह करना पहले से ही पीड़ित मानवता पर कुठाराघात करना होगा। ज्योति मित्र आचार्य 
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