नई दिल्ली। भारत रत्न और तीन बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी का गुरुवार शाम 5.05 बजे निधन हो गया। वे 93 वर्ष के थे। उनके निधन पर 7 दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा गई की। अटलजी का पार्थिव शरीर कृष्ण मेनन मार्ग स्थित उनके आवास पर रातभर रखा जाएगा। सुबह 9 बजे पार्थिव देह भाजपा मुख्यालय ले जाई जाएगी। दोपहर 1.30 बजे अंतिम यात्रा शुरू होगी, जो राजघाट तक जाएगी। वहां महात्मा गांधी के स्मृति स्थल के नजदीक अटलजी का अंतिम संस्कार किया जाएगा।
कविताओं में अटलजी
अटलजी को कविता की कला विरासत में मिली थी। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी भी कवि थे। उनकी कविताओं में राष्ट्र या राजनीति के स्तर पर उपजे हालात का जिक्र होता था या कभी नाराजगी, हौसला और खुशी झलकती थी। जनता पार्टी जब बिखरी, तब उन्होंने ‘गीत नहीं गाता हूं’ कविता लिखी थी। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना पर कविता लिखी- ‘गीत नया गाता हूं’।
उनकी चुनिंदा कविताओं के अंश यहां प्रस्तुत है -:
पहली अनुभूति : गीत नहीं गाता हूं
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नजर बिखरा शीशे-सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ में छुरी सा चांद, राहु गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
दूसरी अनुभूति : गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा
काल के कपाल पर लिखता- मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
भारत के बारे में अटलजी ने एक भाषण में कुछ यूं कहा था
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्रपुरुष है
हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है
कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं
दिल्ली इसका दिल है, विन्ध्याचल कटि है
नर्मदा करधनी है, पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएं हैं
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है
पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं,
चांद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं
यह वंदन की भूमि है, अभिनंदन की भूमि है
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है
इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है
हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए
क्या खोया-क्या पाया
क्या खोया, क्या पाया जग में, मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत, यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी, जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं, यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाजा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा, जीवन बंजारों का डेरा
आज यहां, कल कहां कूच है, कौन जानता, किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
मौत से ठन गई!
ठन गई!
मौत से ठन गई!
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?
तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आजमा।
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफर,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।
बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाकी है कोई गिला।
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।
पार पाने का कायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफां का, तेवरी तन गई।
मौत से ठन गई।