Thursday, April 25, 2024
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राजस्थानी भाषा की नई कविता किसी अन्य से कम नहीं : डॉ. नीरज दइया

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जोधपुर/बीकानेर Abhayindia.com राजस्थानी भाषा के ख्यातनाम कवि, आलोचक, व्यंग्यकार डॉ. नीरज दइया ने कहा कि राजस्थानी की आधुनिक कविता किसी भी भाषायी कविता से कमतर प्रभावी नहीं है। डॉ. दइया आज जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के राजस्थानी विभाग की नियमित ऑनलाइन व्याख्यान माला गुमेज अंतर्गत ‘आधुनिक राजस्थानी साहित अर नूवीं कविता’ विषय पर प्रमुख वक्ता के रूप में अपना उद्बोधन दे रहे थे।

कार्यक्रम की संयोजक व राजस्थानी विभाग की अध्यक्ष डॉ. मीनाक्षी बोराणा ने बताया कि डॉ. दइया ने व्याख्यानमाला के प्रारंभ में  प्रदेश के नामचीन सहित्यविद तथा अपने पिता सांवर दइया की कविता से करते हुए कहा कि परंपरा का विकास ही आधुनिकता है। उन्होंने जय नारायण व्यास, बाकींदास, सूर्यमल्ल मीसण की कविताओं को  आजादी के आंदोलन  से जुड़ी व लिखी कविता को आधुनिक कविता की श्रेणी में रखते हुए उसे आमजन के कंठों में बसी कविता बताया, साथ ही  गणेशीलाल व्यास ‘उस्ताद’, चंद्र सिंह बिरकाली, मेघराज मुकुल, रेवतदान चारण,  गजानंद वर्मा, रघुराज सिंह हाडा, सीताराम जी आदि कवियों की परम्परा को महत्वपूर्ण थाती बताया। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ कवियों में  हमारे राजस्थानी के कवि भी कर सकते हैं, जिसमें कन्हैयालाल  सेठिया, नारायणसिंह  भाटी, सत्यप्रकाश जोशी आदि प्रमुख हैं, इनकी कविताओं के विषय आधुनिकता व नयापन लिए हुए हैं।

राजस्थानी साहित्य में आजादी के बाद नई कविता की शुरुआत डॉ. तेज सिंह जोधा संपादित पुस्तक के मूवमेंट से हुआ तथा आधुनिक कवियों पर परंपरा पत्रिका का अंक जिसमें राजस्थानी कवियों की कविताओं की अलग-अलग दृष्टि से समीक्षा की गई है, वह प्रकाशित हुआ जिसमें गोरधनसिंह शेखावत, पारस अरोड़ा, मणि मधुकर, ओंकारश्री और तेजसिंह जोधा की कविताओं के संग्रह सामने आता है।

उन्होंने कहा कि नई कविता को समझने का शुरुआती आगाज, वाद, विचार, व किसी एक लेखक या कवि के लेखन से नहीं आता है, यह तो पूरा एक दौर होता है बदलाव का। राजस्थानी कविताएं और भारतीय भाषाओं की कविताओं में आजादी के बाद  जो बदलाव है उसी दृष्टिकोण से नई कविता को देखा जाना चाहिए। वैश्विक स्तर पर कविताओं में कई बदलाव आए राजस्थानी की प्राचीन कविताएं जोश जगाने वाली थी, वही नारायणसिंह भाटी की कविताओं में साहित्यिक बदलाव देखने को मिलता है। सत्यप्रकाश जोशी की कविताओं में भी बदलाव का रूप देख सकते हैं। चंद्रसिंह जी की कविता में भी परिवर्तन के स्वर हैं।

डॉ. नीरज ने बताया कि डॉ अर्जुनदेव चारण की पुस्तक ‘बगत री बारखडी’ जिसमें राजस्थानी भासा की कविताओं पर विचार किया गया है, उस परंपरा को  भी देखना व समझना होगा। राजस्थानी कविताओं के विषय समय के साथ बदलते रहे हैं, छंद से छंद मुक्त तक, डांखला, हाइकू, गजल, रुबाइयां, मिनी कविता, गद्य कविता आदि सभी नए नए प्रयोग हुए हैं और उनमें बहुत साहित्य मिलता है। राजस्थानी कविता की बीसवीं सदी की नई कविता की बात करें तो उसमें विषयों में विविधता जैसे घर परिवार, देश-काल, समाज, लोकजीवन, प्रकृति, काल, आर्थिक संकट, बदलाव आदि  देखने को मिलते हैं। राजस्थानी का जो साहित्यिक परिदृश्य को देखे तो केवल राजस्थान में ही नहीं, विदेशों में राजस्थानी के रचनाकार बैठे हैं जो रचनाएं लिख रहे हैं, राजस्थान के गांव-ढाणी में बैठे लोग कविताएं लिख रहे हैं, जो सामने आ रहा है।

डॉ. नीरज ने कन्हैयालाल सेठिया, पारस अरोड़ा आदि के साहित्यिक योगदान की बात की और चंद्रप्रकाश देवल के बारे में बताते हुए कहा कि वह एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में नए भाव बहुत अलग रंग में नजर आते हैं। आज की आधुनिक कविताओं में लोक का स्वरूप है, लयात्मकता व प्रभावी भाषा है, जो आईदानसिंह भाटी, नंद भारद्वाज, प्रेमजी प्रेम, मीठेश निर्मोही, अबिकादत, शंभूदान, गजेसिंह राजपुरोहित, महेन्द्र सिंह छायण, उम्मेद गोठवाल, कुमार अजय, मदन गोपाल लड्डा आदि की कविताओं में नजर आती है।

डॉ. नीरज ने राजस्थानी कविता में महिला रचनाकारों  की बात करते हुए कहा कि डॉ. शारदा कृष्ण, जेबा रसीद, बसंती पवांर, मोनिका गौड, किरण राजपुरोहित, सुमन बिस्सा आदि की कविताओं में महिला वर्ग की समस्याएं के साथ-साथ समाज की बात भी उस में देखने को मिलती है और बहुत उम्दा लेखन उनका है। आज की कविताओं में विषय गत बदलाव, भाषागत बदलाव और संख्यात्मक जुड़ाव की बात भी आपने की।

उन्होंने कहा कि लेखक समाज का यह दायित्व बनता है कि हम अपनी कविताओं को हिंदी, अंग्रेजी, और अन्य भाषाओं के माध्यम से लोगों तक पहुंचाएं जिससे राजस्थानी कविताओं की कीर्ति दूर-दूर तक फैले। राजस्थानी कविता में इस तरह के काम हुए हैं जो कि दूसरी भारतीय भाषाओं में देखने को नहीं मिलते। राजस्थानी भाषा में कवि एक चैलेंज की तरह लिख रहे हैं। राजस्थानी की नई कविता को हम उस की परंपरा को जाने बिना नहीं समझ सकते, परंपरा को पहचान कर ही हम आधुनिकता की नई कविता को पहचान सकते हैं।

इस व्याखानमाला में प्रतिष्ठित साहित्यकार मीठेश निर्मोही, बुलाकी शर्मा, डॉ. मीनाक्षी बोराणा, बसंती पंवार, भंवरलाल सुथार, श्याम जांगिड़, डॉ. शारदा कृष्ण, ममता महक, राम रतन लालित्य, श्यामा शर्मा, जितेंद्र निर्मोही, डॉ. इंद्रदान चारण, ताऊ शेखावाटी, रजनी छाबड़ा, सुरेंद्र स्वामी, प्रमोद श्रीमाली, डॉ. लक्ष्मीकांत व्यास, डॉ. मदनगोपाल लढ़ा, डॉ. गौतम अरोड़ा, रेणुका व्यास, शिवशंकर व्यास, कंवर सिंह, प्रमोद शर्मा, मंजु शर्मा, कुसुम दवे, बुलाकी दास चूरा, डॉ. नमामीशंकर आचार्य, रवि पुरोहित, चंद्रशेखर जोशी, नंदलाल दैया, सुखदेव राव, नेमीचंद गहलोत आदि ने भी अपने विचार प्रकट किए।

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