जब से इस कोरोना वायरस ने हमारी जिंदगी में दखल दी है, तब से अन्य लोगों की तरह मैं भी अपनी इम्युनिटी को लेकर बहुत सेंसिटिव हो गया हूँ। मेरे जैसे कई लोगों के इस तरह अचानक सेंसिटिव हो जाने का देश को फायदा मिला। अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ तो जीडीपी भी बढ़ी।इस दौर में जब हल्दी वाला दूध, खजूर, नींबू जैसी घरेलू चीजें इम्युनिटी बढ़ाने के लिए बताई जा रही थी। ठीक उसी समय बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने जूते, कपड़े, रुमाल, सेनेटरी पैड, शैम्पू, साबुन, अचार व पता नहीं क्या-क्या इम्युनिटी बूस्टर बताकर बेच डाले। एक रियल एस्टेट कारोबारी ने तो भरपूर ऑक्सीजन जॉन बताकर घने जंगल में बने अपने फ्लैट लोगों के गले डाल दिए व बाद मैं पैसे लेकर क्वारण्टाइन हो गया।
कोरोना के दौर में ही यह खोज हुई कि यदि आप बेमौत मरना नहीं चाहते तो पॉजिटिव सोचो! मरना तो मैं भी नहीं चाहता इसलिए जूतों व डायपर की बिक्री से देश की अर्थव्यवस्था को कितना फायदा होगा। भारत सोने की चिड़िया भले ही न बने, लेकिन अदद सोने की चोंच का तो इस कोरोना में जुगाड़ हो जाएगा, ऐसा सोचने लगा। डरा हुआ तो हूँ, उसी समय अचानक मास्टरजी की याद आ गई। जीवन मे समझ पकड़ने के बाद पहली बार उनसे ही डरा था। वे हमें पढ़ाते थे। उस समय भी हम उनकी मार खा-खाकर पक्के हो गए थे। कोरोनाकाल की भाषा मे समझें तो उन्होंने हमारे अंदर मार खाने व उसे सहन करने की क्षमता विकसित कर दी थी। ये ही तो कारण था कि उसके बाद हमें कोई मास्टरजी डरा नहीं सके। उनकी कक्षा में कमजोर इम्युनिटी वाले छात्र तो बैठ ही नहीं सकते थे। सौभाग्य से आज भी उनकी याद शायद मेरा डर भगाने ही आई थी। वो मास्टरजी ही थे जिनके कारण हमारा इम्युटन सिस्टम तगड़ा हो गया था। बाद में तो पिताजी व आस पड़ोस में कइयों ने हमारे पर हाथ साफ किया, लेकिन तगड़े इम्युन सिस्टम से हमारे कोई फर्क नही पड़ा।
इधर, कोरोना ने हमारे शहर में दस्तक दी, उधर हम मास्टरजी के घर पर दस्तक दे रहे थे। इससे पहले जब मास्टरजी के यहां के लिए निकला तो बीवी ने तिलक लगाकर ऐसे विदा किया जैसे बॉर्डर पर जंग लड़ने जा रहा हूं। बेटे ने कुछ इस तरह देखा जैसे उसका बाप मौत के कुएं में आंख पर पट्टी बांधकर मोटरसाइकल चलाने जा रहा हो। मास्टरजी के घर दस्तक देते समय हाथ ऐसे कांप रहे थे जैसे कमजोर इम्युनिटी का बच्चा अपना ऑनलाइन रिजल्ट चेक कर रहा हो।
ये सोच-सोचकर ही हालत खराब हो रही थी कि पता नहीं किस-किसने अपने हाथों से यहां दस्तक दी होगी, लेकिन मैं विवश था क्योंकि संकट में ये ही तारणहार हो सकते हैं। इनकी प्रतिभा का मैं तो लोहा मानता रहा हूँ। कई बार तो लगता है गांधीजी ने फालतू में ही अंग्रेजों भारत छोड़ो का बखेड़ा किया। मास्टरजी को देखते ही अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ता!
खैर, कुछ देर बाद उन्होंने दरवाजा खोला तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोरोना की वैक्सीन मिल गई। वे काफी बदल गए थे उनके हाथ मे अब डंडा नहीं था, लेकिन डंडे जैसे ही गोल करके उन्होंने अखबार को अपने हाथों में ले रखा था। मुझे देखते ही बोले आ मुझे पता था तुम्हारे जैसा आज्ञाकारी शिष्य जरूर आएगा। चाय-पानी का पूछने के बाद उन्होंने अपने हाथ में समेटे अखबार को फैलाया और बोले- देखों क्या छपा है। अखबार में एक कविता छपी थी जिसका मजमून कुछ इस तरह था-
‘इस दौर में तीस पंचर वाले टायर का पंचर फिर निकलवाना होगा।
जैसे-तैसे इस साइकिल को तो अब चलाना होगा…’
इसके नीचे मास्टरजी का नाम लिखा था। पता नहीं पॉजिटिव सोचने का दबाव था या कुछ और मुझे कथित कविता बड़ी प्रासंगिक लगी। प्रगतिशील कविता का जीता जागता उदाहरण मेरे सामने था। मेरे मुखमण्डल पर आए भावों को पढ़ते हुए मास्टरजी ने अपने तरकश से दूसरा तीर निकाल लिया। उन्होंने अपना फोन सामने रखा व एक सोशल साइट पर साया हुई अपनी इसी कविता को दिखाया। उस पर कई दानवीरों ने लाइक व कमेंट कर पुण्य कमाया था। मुझे लगा मुझे अब अपने काम के बारे में बोलना चाहिए। मैंने कहा- मास्टरजी कोरोना…। मास्टरजी बोले- तूं मेरा चेला होकर डर गया। एक बार एक कवि सम्मेलन में हजारों लोग जमा थे, दूसरे कवियों की उस भीड़ को देखकर मंच पर जाने की हिम्मत नही हो रही थी। सच्ची बता रहा हूँ मैं जैसे ही मंच पर चढ़ा लोग रास्ता खोजकर भागने लगे। अफरा-तफरी मच गई थी वहां पर। मैंने एक दो पँक्ति ही बोली थी कि हमारे कमजोर इम्युनिटी वाले कवि भी कवि सम्मेलन छोड़कर आइसोलेट हो गए। एक तू है जो नाहक ही परेशान हो रहा है। जब तेरा ये गुरु हजारों को भगा सकता है तो तू क्यों इस कोरोना से डर रहा है।
मास्टरजी की बात सुनकर हमारे भीतर जैसे साहस हजारों तरंगें दौड़ गई। हमारे मन ने हमें अंदर से ललकारा कि तुझे भी अपने गुरु की तरह ऐसा बनना है जो खुद किसी से न डरे, लेकिन उससे सब डरे। मित्रों, हमने अपनी सर्वांगीण इम्युनिटी बढ़ाने के लिए कवि बनने का भीषण निर्णय ले लिया था। -आचार्य ज्योति मित्र, उस्ता बारी के अंदर, बीकानेर