Sunday, January 12, 2025
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वास्तु के शोष देवता के स्थान पर नहीं बनाना चाहिए द्वार

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“वास्तु शास्त्र” इस सिद्धांत पर आधारित है कि पृथ्वी एक मानव है जो ऊर्जा और जीवन से भरपूर है। वास्तु पुरुष मंडल ब्रह्मांडीय मनुष्य का प्रतीक है, और हम वास्तु पुरुष मंडल (चार्ट) से सिद्धांतों की व्याख्या करते हैं। पृथ्वी पर किसी भी एक संरचना या निर्माण से संबंधित हर छोटी से छोटी जानकारी वास्तु पुरुष मंडल वास्तुकला के सिद्धांतों पर आधारित है। यह एक खाली भूखंड को खोदने से लेकर इमारत के पूरा होने तक शुरू होता है- ब्रह्मा और 44 देवता (कुल 45 देवता) जिन्हें ऊर्जा क्षेत्र के रूप में जाना जाता है, धीरे-धीरे संरचना के विकास के साथ अपने निर्धारित स्थानों पर कब्जा कर लेते हैं। इसलिए, हम देख सकते हैं कि वास्तु पुरुष मंडल सदियों से मंदिरों, घरों, कार्यालयों और कारखानों के लिए वास्तु डिजाइन का मूल है।

निर्माणे भवनानाम् च प्रवेशे त्रिविधेपि च|
वास्तुपूजा च कर्तव्या यस्मात्ताम् कथयाम्यतः||
गृहमध्ये हस्तमात्रं समन्तात्तण्दुलोपरि|
एकाशीतिपदं कार्यं तिलैस्तुल्यंसुशोभनम् ||
एकद्वित्रिपदा पंच चत्वारिन्शत्सुरार्चिता:|
द्वात्रिन्द्बाह्यतो वक्ष्यमाणाश्चान्तस्त्रयोदश||

अपने पिछले आलेख में मैंने 7 वास्तु देवताओं का उल्लेख किया था आज इससे आगे के देवताओं पर विचार करते हैं।

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8. सर्प : ॐ उदुत्यं जातवेदसं देवं वहंति केतवः । दृशेविश्वाय सूर्य स्वाहा ।। ऋग्वेद में ‘सर्प’ शब्द का उल्लेख अधिक बार हुआ है। ऋग्वेद में तो ‘सर्व’ नाम से ‘वृत्रासुर’ (इन्द्र का प्रमुख शत्रु) का उल्लेख किया गया है। वृत्र कार सर्प नाम शायद इसलिए पड़ा है कि वह मानव जाति का प्रमुख शत्रु था और अपने शिकार को वृत्ताकार सर्प की भाँति लपेट लेता है। अथर्ववेद में सर्पों को देवता मानकर उनकी प्रशस्ति की गई है। एक पूरा सूक्त सर्प देवताओं के आह्वान में समर्पित है।

पार्थिव प्राणियों की सृष्टि के विकास क्रम में दक्ष प्रजापति की कन्या कडू के गर्भ से नागों व सर्पों का जन्म हुआ और ये पृथ्वी पर रहने लगे। नाग और सर्पों में मुख्य अंतर यह होता है कि सर्प केवल एक मुख वाले होते हैं जबकि नागों के अनेक मुख होते हैं। वास्तु चक्र में उत्तर दिशा के समीप (ईशान की ओर) वास्तु पुरुष के बांयें कंधे पर स्थित पद में सर्पों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। सर्प को काल नाम का विशेषण भी प्राप्त हुआ है। धर्मराज की पत्नी वसु से वसुगणों के रूप ‘ध्रुव’ नामक वसु के पुत्र का नाम ‘काल’ है, जो कालक्रम की गतिशीलता के प्रतीक हैं। संसार की समस्त दिव्य गतियां ‘सर्पिल’ हैं। वास्तु मण्डल में इस पद पर सर्प के नाम से काल और ध्रुव नामक वस्तु की प्रतिष्ठा ही वसुओं का सर्पों के साथ घनिष्ठ संबंध के दृष्टांत रूप में वेदों में मिलती है।

9. रुद्र : ॐ सुमाणं पृथिवीं द्यामनेहसँ सुशर्माण मदितिं सुप्रणीतिम् । दवींनावँ स्वरित्रामनाग समस्रवन्तीमा रुहेसास्वस्तये ।। वास्तु चक्र में ब्रह्मा के केन्द्र से वायव्य कोण के अक्ष पर रुद्र की स्थिति है। सामान्य जनता रुद्र को भगवान शिव के रूप में जानती है। बुद्धिजीवी एकादश रद की चर्चा करते हैं। महाभारत में एकादश रुद्र के साथ रुद्राणियों की भी चर्चा है। 11 रुद्रों के नाम हैं – मन्यु, मनु, महिनष, महान, शिव, ऋजध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतवृत। रुद्राणियों के नाम हैं- धी, वृत्ति, उष्णा, उमा, नियुत, सर्पि, इला, अम्बिका, इरावती, सुधा और दीक्षा। शिव पुराण में रुद्र संहिता, शत रुद्र संहिता और कोटि रुद्र संहिता इत्यादि के विवरण मिलते हैं। भगवान शिव के विभिन्न नामों में रुद्र, महादेव, शंकर, शंभु, भव, शर्व, उग्र आदि नाम आते हैं और वेदों में भी ये बहुत बार नाम मिलते हैं।

गण देवताओं में रुद्र विशेष महत्व के हैं। वास्तु चक्र में गण समूह के रूप में या देव समूह के रूप में प्रतीक रूप में जिन देवताओं को स्थान मिला है उनमें रुद्र भी एक हैं। भगवान रुद्र के अश्रु बिन्दुओं से उत्पन्न रुद्राक्ष के बारे में भारतीय जनमानस में अत्यधिक जिज्ञासा है और श्रेष्ठ रुद्राक्ष प्राप्त करने के लिए साधु भी कोशिश करते हैं। वास्तु चक्र में जिन रुद्र को हम जानते हैं वे संख्या में 11 हैं और समूह देवता के रूप में वायव्य कोण में स्थित हैं। यद्यपि उन्हें एक ही पद दिया गया है। मरुतों से साहचर्य का कारण यही है कि उन्हें वायव्य कोण में वायु देवों के साथ स्थान दिया गया है।

10. विवस्वान : ॐ विवस्वन्नादित्यैष ते सोम पीथस्तस्मिन्मत्स्व । श्रदस्मै नरोव्वचसे दधातन यदाशीर्दा दंपतिर्वाममश्नुतः । पुमान्पुत्रो जायते व्विंदतेव्वस्वधा व्विश्वाहारपऽएधते गृहे। विवस्वान देवता मध्याह्नकालिक सूर्यदेव के प्रतिरूप हैं। द्वादश आदित्यों में से एक हैं और यमराज के पिता हैं। त्वष्टा की कन्या संज्ञा (कहीं इनका नाम सरण्यु भी बताया है।) से इनका विवाह हुआ और यम-यमी और मनु आदि संतान इनके उत्पन्न हुई। दक्षिण दिशा में वास्तु चक्र में इन्हें षट्पदीय देवता के रूप में प्रमुख स्थान प्राप्त है। राज्य और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए इस पद पर प्रमुख कक्ष या भवन बनाने की परम्पराएं वास्तु आचार्यों ने बताई है।

11. शोष : ॐ असवेस्वाहा वसवेस्वाहा विश्वेभ्यः स्वाहा विवस्वते स्वाहा गणश्रियेस्वाहा गणपतये स्वाहाभिभुवे त्त्वाहाधिपतये स्वाहा शूषायस्वाहा सँ सर्पायस्वाहा चंद्रायस्वाहा ज्योतिषेस्वाहा मलिम्लुचाय स्वाहा दिवापतये स्वाहा ।। ॐ भूर्भुवः स्वः भो शोक इहागच्छ इहतिष्ठ ॐ शोकाय नमः शोकमावाहयामि इतिस्थापनम् ।। इसे शोक का देवता माना गया है और वास्तुशांति प्रकरण में जीवन में जितनी भाँति के शोक हैं वे यहाँ से होना संभावित हैं। किसी भी प्रकार के उल्लंघन से ये देवता अगर उत्तेजित हो गए तो जीवन में शोक ला देते हैं। इस देवता को यदि नमन किया जाए तो यह शोक से मुक्ति भी दिलवा देते हैं। वैदिक ऋषियों ने जब वास्तु के अद्भुत चक्र की स्थापना की तो शोष नामक देवता के क्षेत्राधिकार तक पहुंचने वाले रोदन कक्षों की व्यवस्था दी जहाँ शोक संतप्त व्यक्ति यदि बैठें या निवास करें तो स्वयमेव ही अनुपात होने लगे और उसके मन की व्यथा बाहर निकल आए।

समरांगण सूत्रधार ने शोष को सूर्यपुत्र शनि के रूप में स्वीकार किया है। शनि के नैसर्गिक गुणों का संबंध शोष से है। शोष का अर्थ शोषण या सूख जाने से भी है। समरांगण सूत्रधार ने इस पद पर भवन का द्वार होने से धन का क्षय या हानि होना बताया है। कहीं-कहीं इन ‘शोष’ को ‘शोक’ भी कहा गया है। वास्तु ग्रंथों में षोडश कक्ष विधान के अंतर्गत भूखण्ड के इस पद पर ‘शोक भवन’ बनाने के निर्देश मिलते हैं। ‘शोक’ पद पर बैठने या समय गुजारने से शोक में कमी आती है। शोक को शनिदेव के प्रतिरूप माना जाना उचित है क्योंकि शनिदेव भी कष्टों का भुगतान शीघ्रता से करते हैं और कष्ट सहन करने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं। इस स्थान पर द्वार निर्धारण जीवन में अनंत शोक ला सकता है तो दूसरी तरफ इस स्थान पर द्वार निर्धारण नहीं हो परंतु रोदन कक्ष बना लिया जाए तो शोक निवृत्ति भी संभावित है।

12. सुग्रीव : सुषुम्णाः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गधर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भे कुरयो नाम। सन इदं ब्रह्मक्षत्रपातु तस्मै स्वाहा वाट्‌ताभ्यः स्वाहा। सुग्रीव के शाब्दिक अर्थ हैं- अच्छी गर्दन वाला, नायक, हंस, एक प्रकार का शरण परंतु वास्तु चक्र में हम सुग्रीव का संबंध भगवान हयग्रीव या हयशीर्ष (घोड़े के सिर वाले) महर्षि दध्यंगचर्षण से और अश्विनी कुमारों से मानते हैं। एक कथा के अनुसार महर्षि दध्यंगधर्षण ब्रह्म विद्या मधु विद्या के ज्ञाता थे और देवराज इंद्र इस विद्या को किसी भी भाँति प्राप्त करना चाहते थे। जब इन्द्र महर्षि के पास आये तो महर्षि ने ब्रह्मविद्या की उचित पात्रता का अभाव इन्द्र में देखते हुए विद्या देने में आपत्ति की। इन्द्र को क्रोध चढ़ा और उन्होंने कहा कि यदि आपने यह विद्या किसी और को सिखाई तो मैं आपकी गर्दन काट दूँगा। ऐसा कहकर इन्द्र चले गये। कालांतर में अश्विनी कुमार जो कि इस विधा की पात्रता रखते थे, वे महर्षि दध्यंगमर्षण के पास आये और विद्या को याचना की।

महर्षि ने उचित पात्रता देखकर विद्या देने की इच्छा तो रखी परंतु उन्होंने अश्विनी कुमारों को यह भी बताया कि यदि मैंने यह विद्या किसी को सिखाई हो इन्द मेरी गर्दन काट देंगे। अश्विनी कुमारों की संसार का प्रथम शल्य चिकित्सक माना जाता है। उन्होंने महर्षि को आश्वासन दिया कि आप इसको परवाह न करें। हम आपके सिर को काटकर पहले ही सुरक्षित रख लेंगे और एक के सिर को काटकर आपके धड़ पर जोड़ देंगे और उसी रूप में आप हमें सिखाइए। ऐसा ही हुआ। जब इन्द्र को यह पता चला कि महर्षि द्वारा ब्रह्म विद्या अश्विनी कुमारों को सिखाई गई है तो वे तुरंत आये और महर्षि की गर्दन काट दी। अश्विनी कुमारों को यह सूचना मिली तो वे आये और उन्होंने पहले से सुरक्षित रखे हुए असली सिर को महर्षि के धड़ पर पूर्ववत जोड़ दिया। अतः इस पद पर महर्षि दध्यंगधर्वण गुरु रूप में और अश्विनी कुमार विद्यार्थी रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी कारण से वास्तु विद्या के आचार्यों ने षोडश कक्ष विधानों में इस पद पर विद्याभ्यास मंदिर बनाने के निर्देश दिये हैं। विद्याध्ययन के लिये पश्चिम और नैऋत्य के मध्य का यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। (क्रमशः) लेखक -सुमित व्यास, एम.ए (हिंदू स्टडीज़), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी मोबाइल – 6376188431

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