Monday, November 25, 2024
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स्वस्थ पत्रकारिता के आलोक स्तंभ शेखर सकसेना

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(पत्रकारिता क्षेत्र को नई ऊंचाईयां देते हुए शिखर तक पहुंचाने वाले यशस्वी पत्रकार स्वर्गीय शेखर सकसेना के जीवन से जुड़े अहम् पहलुओं पर बीकानेर के वरिष्ठ साहित्यकार भवानी शंकर व्यास ‘विनोद’ का लिखा यह आलेख ‘अभय इंडिया’ के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। -सुरेश बोड़ा, संपादक)

श्री शेखर सकसेना की गणना बीकानेर के प्रतिनिधि पत्रकारों तथा समाचार-पत्रों के आदर्श संपादकों में की जाती है। उन्होंने पत्रकारिता के उच्च प्रतिमानों पर हमेशा ध्यान दिया तथा अपने द्वारा संपादित पत्रों की स्तरीयता को अक्षुण बनाए रखा। वे एक जागरूक पत्रकार, एक सुलझे हुए समीक्षक, एक सिद्धहस्त संपादक तथा एक श्रेष्ठ लेखक थे। उनके आलेख हमेशा चर्चित रहे। 1950 से 60 तक तो उन्हें अपने पिता यशस्वी पत्रकार एवं साहित्यकार स्वर्गीय शंभूदयाल सकसेना के सान्निध्य में रहकर सीखने का अवसर मिला पर बाद में जब उन्होंने सेनानी व गणराज्य का संपादन किया तो वे एक पूर्णतया परिपक्व पत्रकार के रूप में सामने आए। वे जानते थे कि स्वस्थ पत्रकारिता के कुछ बुनियादी उसूल हुआ करते है। ये हैं निर्भयता, निष्पक्षता एवं कार्य निष्ठा। सत्य इन सभी गुणों का आधार होता है।

श्री सकसेना ने जीवनपर्यंत इन आदर्श प्रतिमानों का अनुपालन किया। भय और प्रलोभन से दूर रहकर सत्ता के गलियारों में होने वाले गलत कार्यों की खुलकर आलोचना की। उनके अग्रलेखों की चर्चा राजस्थान विधानसभा, यहां तक की कभी-कभी तो लोकसभा में हुआ करती थी। निष्पक्षता पर उन्होंने हमेशा ध्यान दिया। यदि किसी मामले में किसी एक पक्ष का समाचार छप जाता तो वे प्रतिपक्ष को भी अपनी बात रखने का पूरा अवसर दिया करते थे ताकि सच्चाई सामने आ सके। वे न तो किन्हीं कृपाकोरों से उल्लासित होते थे न भृकुटी तनावों से घबराते थे। उनके पाठकों को भरोसा रहता था कि सेनानी या गणराज्य में जो कुछ भी छपता है वह निश्चित रूप से प्रमाणित ही होता है। प्रमाणिकता और विश्वसनीयता के कारण ही ये पत्र इतनी ऊंचाइयों पर पहुंच सके। वे सनसनीखेज समाचारों में कभी विश्वास नहीं करते थे। उनके समय में भी कुछ ऐसे पत्रकार थे जो नितांत झूठी खबरों को छापकर या आरोपों-प्रत्यारोपों के बल पर अपना उल्लू सीधा किया करते थे।

श्री सकसेना ने ऐसी पीत पत्रकारिता पर कभी विश्वास नहीं किया। सेनानी में जो कुछ छपता था वो सौ टंका टंच और खरे सोने की तरह होता था। उनकी कार्यनिष्ठा का ही फल था कि सेनानी हो या गणराज्य, हमेशा नियमित और समयबद्ध रूप से सामने आते थे। सच बात तो यह है कि पाठक हर नए अंक की प्रतीक्षा किया करते थे और यदि किसी कारणवश जरा सा भी विलंब हो जाता तो बेचैन हो जाया करते थे। पाठकों की ये बेचैनी ही किसी समाचार पत्र के दीर्घजीवी होने की गारंटी हुआ करता है। उस समय बाजारवाद का आज जैसा घिनौना रूप नहीं था। राजस्थान के सर्वोच्च पत्रकार श्री शंभूदयाल सकसेना के सान्निध्य के कारण उन्होंने यह तो सीख लिया था कि अच्छी पत्रकारिता के पीछे भी मिशनरी भावना होनी चाहिए। सत्ताधारियों के निकट पहुंचने की ललक या जमीर बेचकर सुविधाएं प्राप्त करने की इच्छा से वे कोसों दूर थे।

मित्रभाव से किसी को ऊंचा उठाने की या व्यक्तिगत द्वेष या नापसंदगी से किसी की अनावश्यक निंदा करने की उन्होंने कभी चेष्टा नहीं की। वे अपने पत्रों की झूठी प्रचार संख्या के बल पर विज्ञापन लेने में विश्वास नहीं करते थे। नैतिकता और ज्ञानोन्मुखता उनकी पत्रकारिता के आदर्श थे। उन्होंने मानवीयता और सामाजिक दायित्व पर हमेशा ध्यान दिया। उनके पत्रों में भूख, गरीबी और अकाल की त्रासदियों की, भूखमरी के कारण इंसानों और पशुओं के मरने की, चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार की, राशन कार्डों में होने वाले घपलों की, जनता की पीड़ाओं, राजनेताओं की उदासीनता की तथा नग्न नौकरशाही की करतूतों की खबरें बराबर छपा करती थी। न तो बढ़ा-चढ़ाकर किसी खबर को छापा और ना झूठे आंकड़ों के प्रपंच में फंसने का प्रयास ही किया। वे उन पत्रकारों में नहीं थे जो सत्ताधारियों की सुविधा के लिए किसी खबर को दबा दे या उसकी सघनता को कम करके दिखाए। तभी तो उनकी गणना साहसी पत्रकारों में की जाती है। लोकतंत्र में जन-जागृति पैदा करना, स्वस्थ जनमत तैयार करना, मानवीय मूल्यों का प्रतिपादन करना व सामाजिक बुराइयों, रूढिय़ों तथा कुरीतियों का विरोध करने में वे सदैव अग्रणी रहा करते थे। वे जानते थे कि लघु समाचार-पत्रों का विशेष महत्व होता है। किसी जनपद या अंचल के निवासियों के सीधे संपर्क में रहने के कारण वे अधिक विश्वसनीय हुआ करते हैं

श्री शेखर सकसेना ने अमेरिका के प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, भाषाविद् और चिंतक चान्सकी व हरमन के विचारों के अनुसार ‘मैन्यूफैक्चर ऑफ कन्सेन्ट’ यानी जनता की राय बनाने के सिद्धांत पर जोर दिया। वे न तो सच्ची खबर को सेंसर करते, न कभी उसे विकृत करके पेश करते, क्योंकि वे जानते थे कि विकृत विश्लेषण असंख्या पाठकों की जानकारी को भी विकृत किए बिना नहीं रहता। जनमत का निर्माण करने वाला पत्रकार जनता की सही हालत का दिग्दर्शन करता है, न तो खुद कभी दबता है और न कभी किसी को अनावश्यक दबाता ही है, बल्कि जो कुछ कहना चाहिए उसे खुलकर उजागर करता है। श्री शेखर सकसेना ऐसी विचारधारा के पोषक थे।

उनके समाचार-पत्रों में केवल राजनीति सरगर्मियां ही नहीं रहती, बल्कि वाणिज्य जगत के उतार-चढ़ावों, खेलकूद की खबरों, साहित्य, संगीत और कला के समाचारों, कृषकों की समस्याओं, युवा वर्ग की कठिनाइयों का चित्रण व महिलाओं की त्रासदियां आदि के वर्णन भी हुआ करते थे। कुछ स्तंभ तो इतने रोचक होते तथा उनकी भाषा इतनी साहित्यपूर्ण होती कि वे जनमानस की स्मृति के अंक बन जाया करते थे। श्री सकसेना अनछुए प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत करने में माहिर थे। खबरों में से खबर निकालना उन्हें खूब आता था। उनका जनसंपर्क काफी व्यापक था। इसमें उद्योगपति, वकील, साहित्यकार, कलाकार, शिक्षक, ट्रेड यूनियनों के नेता, राजनीतिक क्षेत्रों के कार्यकर्ता व छात्र यूनियनों के प्रतिनिधि आदि थे। यदि कारण है कि जो भी खबर आती उनको वे विशेषज्ञ के रूप में प्रस्तुत कर सकते थे। ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से वैर’ उनका प्रेरणास्पद सिद्धांत था।

अब पत्रकारिता व साहित्य के क्षेत्र में मेरे व उनके संपर्कों पर विचार कर लिया जाए।

साहित्य, संगीत, कला व व्यक्ति परिचय आदि विषयों पर साहित्य समारोहों, गोष्ठियों, चर्चाओं-परिचर्चाओं आदि पर मैंने जो कुछ भी लिखा या आलेख भेजे, उनको उन्होंने पूरी तत्परता के साथ छापा। बीकानेर रियासत के स्वतंत्रता सेनानियों पर लिखे गए मेरे लेख भी लगातार छपते रहे। सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ मोतीलाल रंगा का सार्वजनिक अभिनंदन हो, या डॉ. जयचंद्र शर्मा व जे. बगरहट्टा के जीवन प्रसंग हो, गिरधारी सिंह पडि़हार की स्मृति सभाओं का विवरण हो, या शिक्षा विभाग में लोकप्रिय जिला शिक्षा अधिकारी की संदिग्ध परिस्थितियों में असामयिक मृत्यु के बाद उनकी शवयात्रा व दाह क्रिया का आंखों देखा वर्णन हो, सेनानी में उन सभी आलेखों को बराबर महत्व मिला करता था।

बीकानेर के साहित्यकारों के प्रति उनमें विशेष सम्मान था। सन् 1965 में भारत ने पाकिस्तान को पराजित करके जो कीर्तिमान स्थापित किया। उसका जन-जन ने तो स्वागत किया ही, बीकानेर के साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं में उनका कीर्तिगान किया। बीकानेर की एक प्रतिनिधि साहित्य संस्था ‘संहिता’ का गठन 15 अगस्त 1965 को हुआ था। श्री शेखर सकसेना उसके प्रारंभिक सदस्यों में से एक थे। संस्था ने ‘विजय हमारी है’ शीर्षक से जब एक पुस्तक छापने का प्रस्ताव रखा तो श्री शेखर सकसेना ने न केवल अपनी सहमति दी, बल्कि नवयुग ग्रंथ कुटीर से उसको छापने तथा पूरा व्यय वहन करने की स्वीकृति भी दी। ग्रंथ में कुल 66 कवियों की दो-दो रचनाएं थी। ये तय हुआ कि संपादन संहिता के नाम से हो, प्रकाशन नवयुग ग्रंथ कुटीर करे तथा पुस्तक छपने के बाद प्रत्येक कवि को उसकी पांच-पांच प्रतियां मानदेय के रूप में दी जाए। निर्णय हुआ था, 19 सितम्बर 1965 को तथा पुस्तक छपकर तैयार हो गई तीन महीनों के भीतर। निर्णय के अनुसार दिनांक 19 दिसम्बर 1965 के दिन एक विशेष समारोह में श्री शंभूदयाल सकसेना के हाथों प्रत्येक कवि को पांच-पांच प्रतियां दे दी गई। ये श्री शेखर सकसेना के कारण ही संभव हो सका।

शेखरजी ने श्री माणकचंद रामपुरिया की लगभग 40 पुस्तकों का प्रकाशन किया। पुस्तकों के भूमिका लेखक भारत के दिग्गज साहित्यकार थे, जैसे- डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी, श्रीशिवपूजन सहाय, डॉ. नगेन्द्र, श्री गोपालदास ‘नीरज’ तथा श्री कल्याणमल लोढ़ा आदि। इन सभी से पत्र-व्यवहार करके भूमिकाएं मंगवाई गई तथा देशभर में पुस्तकों के प्रसार की व्यवस्था की गई। मेरी दो पुस्तकों ‘मुझे हंसी आती है’ तथा ‘हास्यमेव जयते’ का प्रकाशन भी नवयुग ग्रंथ कुटीर ने किया। प्रत्येक पुस्तक की दो-दो हजार प्रतियां छपी। मानदेय पंद्रह प्रतिशत के हिसाब से तय हुआ। मैंने मानदेय नकद में न लेकर पुस्तकों के रूप में लेने का आग्रह किया। वादे के अनुसार शेखरजी ने चार हजार प्रतियों के पंद्रह प्रतिशत के आधार पर छह सौ प्रतियां गाड़े में भरकर मेरे घर भिजवा दी। सचमुच कमाल के थे शेखर सकसेना। उनकी स्मृतियों को नमन। भवानीशंकर व्यास ‘विनोद’

शंभू-शेखर सकसेना राज्य स्तरीय साहित्य-पत्रकारिता पुरस्कार समारोह 27 को, डॉ. कल्ला होंगे मुख्य अतिथि

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