सुरेश बोड़ा
बीकानेर (अभय इंडिया)। सत्तर के दशक से जिस ‘मगरे के शेर’ की दहाड़ से सिस्टम की चूलें हिल जाती थी। नौकरशाही खुद उनके ‘डेरे’ की चौखट चूम लेती थी। उस ‘शेर’ की दहाड़ इतनी कमजोर पड़ जाएगी। ये बात तो उनके विरोधियों ने भी कभी नहीं सोची थी। हम बात कर रहे हैं पूर्व मंत्री एवं भाजपा के दिग्गज नेता देवीसिंह भाटी की। अस्सी के दशक से कोलायत विधानसभा क्षेत्र से लगातार चुनाव जितने के बाद भाटी पिछला चुनाव ही हारे थे, पर जज्बा नहीं। उनमें हालांकि पहले जैसी ‘गर्मी’ नजर नहीं आ रही, लेकिन तपन तो कायम ही है। हाल के दिनों में भाटी की ओर से मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को लिखे पत्र चर्चा का केन्द्र बने हुए है। हालिया लिखा वो पत्र तो बेहद चर्र्चित हो रहा है जिसमें उन्होंने यहां तक लिख डाला कि यदि मैं राठी हत्याकांड को लेकर ‘धरने पर बैठ जाता तो अब तक मर जाता।’ भाटी के इस पत्र ने कहीं न कहीं उनके प्रशंसकों को तो विचलित किया ही है, साथ ही उनके ध्रूर विरोधियों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। आखिर ‘मगरे के शेर’ की एक चुनावी हार ही तो हुई है। सत्ता के मद में चूर पार्टी के लोग उनके इतिहास को कैसे भूला सकते है। कौन नहीं जानता कि जब भाजपा की सरकार अल्प बहुमत के चक्कर में धराशायी हो रही थी, तब भाटी की रणनीति ही उनके काम आई थी। पार्टी हो या सत्ता, सबके लिए भाटी का ‘रौब’ हमेशा संजीवनी की तरह काम आया है। एक समय जब पार्टी पूरे प्रदेश में चित हो गई थी, तब कोलायत में ‘कमल की पंखुडिय़ां’ इन्होंने ही बचाई थी। ऐसे ढेरों उदाहरण भाटी के वजूद की कहानियां से भरे पड़े हैं। ऐसे में पार्टी को भी चाहिए कि वो नौकरशाही को अतिरेक शह देने के बजाय अपने जमीनी नेताओं के कद का ख्याल रखें। अन्यथा पार्टी के लिए मर-मिटने की कसमें खाने वाले कार्यकत्र्ताओं का अकाल पड़ जाएगा।
बहरहाल, भाटी के पत्रों का जवाब नौकरशाही द्वारा सात-सात महीनों से दिया जाना इस लोकतंत्र में अच्छे संकेत नहीं है। ढर्रा ऐसा ही रहा तो आने वाले समय में इसके परिणाम कहीं न कहीं पार्टी को ही भुगतने न पड़ जाए?