अभय इंडिया डेस्क. आज महानगरों की आपा-धापी भरी तनावपूर्ण जीवन शैली गलत रहन-सहन शारीरिक श्रम की कमी बैठने, उठने व सोने की गलत आदत, कम्प्यूटर पर लम्बे समय तक कार्य करने से बढ़ता हुआ मोटापा, प्रदूषण, दूषित खान-पान भीड़-भरी सड़कों पर लम्बं समय तक वाहन चलाने आदि कारणों से लोगों में रीढ (स्पाईन) व जोड़ों सम्बन्धी बीमारी तेजी से फैल रही है। इन दिनों बड़ी संख्या में वृद्ध ही नहीं, अपितु युवा भी रीढ व जोड़ों के विकारों से ग्रस्त है।
एक शोध के मुताबिक 2000 से 2017 के मध्य रीढ़, मांसपेशियों व जोड़ों के दर्द से जुड़ी बीमारियों में 50 प्रतिशत का बढ़ोतरी हुई है। शोधकत्र्ता बताते हैं कि भविष्य में मानसिक रोगों के बाद रीढ़ व जोड़ों की बीमारी दूसरी सबसे बड़ी बीमारी होगी। खेद की बात यह है की स्वास्थ्य संस्थाओं का ध्यान इस ओर कम है।
इन विकारों में मुख्यत: स्लिपडिस्क पीठ, दर्द, गठिया, घुटने का दर्द, एडी का दर्द, सोल्डर का दर्द, स्कोलिओसिस कॅान्पलेक्स, रीजनल पेन सिड्रोम आदि अनेक और भी रोग है ।आइये, इन रोगों के कारणों पर प्रकाश डालते है। सबसे बड़ा कारण आघात, दुर्घटना में लगी चोट हो सकती है जो कालान्तर में जाकर रोग का रूप ले लेती है इसके अतिरिक्त हड्डियों से कैलशियम का क्षय होना, गांठ का बनना, कैंसर, लम्बर डिस्क हर्नियेशन, वर्टिबल कोलम, में स्टीनोसिस अर्थात केनाल का संकरा हो जाना, उम्र बढऩे के साथ-साथ वर्टीब्रा में बल्जिंग होना आदि है।
इन रोगों के लक्षणों की बात करे तो मुख्य लक्षण है, दर्द अर्थात शूल जिसके कारण रोगी को समस्या या रोग का आभास होता है। इसके अतिरिक्त सम्बन्धित अंगों में कड़ापन या जकड़ाहट होना। अंगों में सूनापन होना, कम्पन होना या हाथ-पैर में झुनझुनी होना इसे टिन्गलिंग सेन्शेसन कहते है। हाथ व पैर के जोड़ों की तकलीफ होने पर कट-कट की आवाज यानि क्रिप्टिशन सुनाई पड़ती है और अन्तत: इस जोड़ से सम्बन्धित अंग के मूवमेन्ट में रूकावट महसूस होना अर्थात कार्य करने पर तकलीफ होना प्रारम्भ हो जाता है।
इन रोगों के निदान के बाद आवश्यक है उपचार एवं प्रबन्धन। विभिन्न रोगों में दर्द का उपचार करते समय प्रबन्धन का लक्ष्य दर्द की तीव्रता को कम करना, रोगी को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में कार्य करना की क्षमता को बढ़ाना हैं। हमारे भारत देश की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में इन विभिन्न रोगों से उत्पन्न दर्द के निवारण की श्रेष्ठ तकनीक उपस्थित है जिसका वर्णन हजारों वर्ष पूर्ण आचार्य सुश्रुत जिनको फादर ऑफ सर्जरी भी माना जाता है के द्वारा प्राचीन ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में वर्णित है। इस प्रक्रिया को अग्निकर्म के नाम से जाना जाता है। अग्नि अर्थात् ताप या उष्मा को प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रूप से रोगी के रोग ग्रस्थ भाग
जैसे त्वचा, मांसपेशी, अस्थि, संधि, स्नायु पर शलाका यंत्र द्वारा प्रयोग करना बशर्तें इस प्रक्रिया का प्रयोग कुशल वैद्य सुरक्षित व जीवाणु रहित तरीके से करें।
इस प्रक्रिया द्वारा ना सिर्फ पीड़ा से मुक्ति है अपितु इसके जोड़ों व रीढ़ की विकृति भी नष्ट हो जाती है एवं रोग का पुनर्भव नहीं होता। अग्निकर्म प्रक्रिया को वात-कफ जनित रोगों पर विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है। ये प्रक्रिया वात जनित तीव्र शूल को उष्ण, तीक्ष्ण, सूक्ष्म, व्यवायी, विकासी गुणों से समाप्त कर देता है। यह प्रक्रिया तीव्र व जीर्ण शूल का प्रभावी रूप से नाश कर देता है। जहां आधुनिक चिकित्सा पद्धति द्वारा रोगों का उपचार संभव नहीं है, वहां अग्निकर्म प्रभावी है। आचार्यो द्वारा भी वर्णित है जहां औषध, शस्त्र, क्षार काम नहीं करते वहां अग्निकर्म का
प्रयोग करें।
यह प्रक्रिया विवारण हेतु, उपचार हेतु व रक्तावरोधन हेतु उपयोगी है। देश की विभिन्न बड़ी-बड़ी संस्थाएं इसका प्रयोग रोगियों के उपचार में कर रही है। बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान जयपुर, गुजरात आयुर्वेद विश्वविद्यालय, राजस्थान आयुर्वेद विश्वविद्यालय आदि। इस विधा को इस क्षेत्र में जिन्दा रखने का कार्य राजकीय जिला आयुर्वेेद चिकित्सालय बीकानेर में किया जा रहा है। गोगागेट स्थित इस संस्थान में प्रत्येक सोमवार व मंगलवार को निशुल्क अग्निकर्म किया जाता है।
-डॉ. नरेश लोहिया,
शल्य चिकित्सा इकाई, जिला आयुर्वेद चिकित्सालय, बांदरों का बास,
गोगागेट, बीकानेर
ऐसे दर्द से अग्निकर्म दे सकता है मुक्ति
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