आपने देखा होगा मैंने भी देखा है सदियों से चली आ रही परम्परा कि जब भी सुबह की पूजा खत्म हो उसके बाद धूप या दीप घर के हर कोने में दिखाया जाता है। लोग सदियों से कर रहे है लेकिन उन्हें नहीं पता वे ऐसा क्यों कर रहे है। सत्य यह है कि घर के हर कोने में देवता निवास करते हैं। वास्तु के अनुसार, घर की हर दिशा किसी न किसी देवता को समर्पित होती है।
मान्यता है कि अगर उस दिशा में उनसे संबंधित चीज़ें या यंत्र रखे जाएं तो सकारात्मक और तरक्की मिलती है। घर की बलाएं दूर होती हैं। घर की कौन-सी दिशा का संबंध किस देवी-देवता से है? वास्तु शास्त्र इन्हीं देवताओं के स्थान की जानकारी देता है। हमारे अनेक धर्म ग्रन्थों के अनुसार वास्तु पुरूष का शरीर ईशान से नैऋर्त्य दिशा में है और पेट धरती की ओर हैं। उसका सिर ईशान, मुड़े हुए पंज़े और पैर नैऋर्त्य में, दायां घुटना और दाई कोहनी आग्नेय में और बायां घुटना व कोहनी वायव्य में हैं।
वास्तु पुरुष के सभी अंग भार ढोने के लिए सक्षम हैं। उसकी नाभि और ह्रदय क्षेत्र में को आकाश की ओर खुला रखा जाता हैं। ईशान दिशा मुख हैं जिस पर भार कम रखा जाता हैं। वास्तु पुरुष के शरीर पर कुछ मर्म स्थान हैं- जैसे सिर और हृदय इन कमज़ोर स्थानों पर भारी वज़न जैसे स्तंभ या शहतीर नहीं होना चाहिए। धर्म शास्त्रों के अनुसार वास्तु देव भूमि के देवता हैं। जाहिर है जिस जमीन पर हम गृह निर्माण करते हैं उसके असली मालिक वास्तु देव हैं। यही कारण है कि किसी भी भवन के निर्माण से पहले वास्तु देव की पूजा की जाती है। वास्तु के नियमों के अनुसार ही उसका निर्माण करना होता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार, कमरों से लेकर रसोई व पढ़ाई से लेकर पूजा घर तक हर कमरे को भी वास्तु की दिशा को ध्यान में रखकर बनाना ही उचित माना गया है। यह सत्य है कि ऐसा नहीं करना भूमि के मालिक की सुख- शांति को भंग कर सकता है।वास्तु चक्र में देवताओं का स्थान है जिनका परिचय प्रायः आम लोगों को होता ही नहीं है इसलिए इन देवताओं का परिचय इस प्रकार है-
1. पृथ्वीधर : ॐ पृथिवीछन्दः अन्तरिक्षंछन्दः द्यौश्छंदः समाश्छंदः नक्षत्राणिच्छंदः वाक्छंदः मनश्छंदः कृषिश्छंदः हिरण्यंछन्दः गोश्छन्दोऽजाश्छन्दोऽश्वश्छन्दः ।। पृथ्वीधर देवता साक्षात शेषनाग के स्वरूप हैं। वास्तु चक्र में इन्हें अष्टवसुओं में से एक माना गया है। दक्ष प्रजापति की वसु नाम की कन्या जो कि धर्म की पत्नी थीं उनके गर्भ से धर नामक वसु का जन्म हुआ। सभी वसुओं के साथ इनको भी पृथ्वीधर के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। इस पद पर स्थित देवता का सम्मान हो तो यह अधिक भूमि व क्षेत्राधिकार प्रदान करते हैं।
2. ब्रह्मा (धाता-विधाता) : ॐ आ ब्रह्मन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाष्ट्रे राजन्यः शूरऽइष व्योति व्याधी महारथो जायतां दोग्धी धेनुर्वोढा नड्वानाशुः सप्तिः पुरंधियर्योषा जिष्णुरथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतान्निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्योनऽओषधयः पच्यंताम् योगक्षेमो नः कल्पताम्।। वास्तु चक्र के सबसे प्रमुख देवता ब्रह्मा हैं। ये सबसे बड़े भूभाग के अधिपति हैं और एकाशीतिपद (81 पद) वास्तु में नौ पदों के स्वामी हैं। इन्हें वास्तुचक्र में द्वादश आदित्यों में से एक धाता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। समस्त देवताओं ने महाराक्षस का आक्रमण से पूर्व ब्रह्मा से आज्ञा ली और उनके साथ ही उसे परास्त किया। संभवतः व्यक्तिगत शक्ति सामर्थ्य के आधार पर देवता वास्तु चक्र के पदों का भोग करते हैं। ब्रह्मा के बाद चार देवता छह पद के स्वामी हैं और बाकी सभी देवता या तो दो पद या एक पद के स्वामी हैं। ब्रह्मा न केवल वास्तु चक्र में बल्कि सर्वतोभद्र चक्र में भी स्थान में हैं।
3. मित्र : ॐ तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्योरूपं कृणुते द्यौरुपस्थे। अनन्तमन्य दुशदस्यपाजः कृष्णमन्यद्धरितः संभरन्ति।।वास्तु चक्र में ठीक पश्चिम दिशा में वरुण को और उनके समीप ही मित्र देव को 6 पद प्राप्त हैं। वास्तु पुरुष के पेट के बाँयें भाग पर इनका आधिपत्य है। वरुण देव, मित्र देव के साथ मिलकर ही प्राण-शक्ति का प्राणियों में संचार करते हैं।
4. पितृगण : ॐ पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन्न पितरो मीमदन्त पितरोती तृपन्न पितरः पितरः शुन्धध्वम्।। व्यक्ति के जन्म से पूर्व और जन्म के बाद जो परिजन पितामह, पिता, छोटे भाई, पुत्र आदि जो भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सभी पितृगण कहलाते हैं।
वास्तुचक्र में पितृगणों को नैऋत्य कोण में स्थान दिया गया है। यहाँ यदि ये उत्तेजित हो जाएं अर्थात् इनके प्रति वास्तु नियमों का उल्लंघन किया गया तो ये परिवार को और लौकिक सिद्धियों को नष्ट कर देते हैं। यदि इन्हें संतुष्ट कर दिया जाए तो ये न केवल दिशा निर्देश देते हैं बल्कि पितर और देवताओं की कृपा से जीवन को समृद्ध भी कर देते हैं।
5. पापयक्ष्मा : ॐ सूर्य रश्मिर्हरिकेशः पुरस्तात्सविता ज्योतिरुदयाँ ऽजम्रम्। तस्य पूषा प्रसवे यातिविद्वान् सम्पश्यन्विश्व भुवनानिगोपाः।। पापयक्ष्मा शब्द में प्रमुखतः दो शब्द समाहित हैं। पाप और यक्ष्मा। यक्ष्मा एक प्रकार के रोग का नाम है जो फेफड़ों को शनैः शनैः निष्क्रिय बना देता है तथा बुरे कर्मों को ही पाप कहते हैं। व्यक्ति के निरंतर अशुभ कर्म करते रहने से जो रोग या प्रतिफल प्रकट होते हैं उन्हें ‘पापयक्ष्मा’ कहते हैं। इस पद पर द्वार के कारण, पाप कर्मों के कारण शरीर क्षय होता है। वास्तु चक्र में वायव्य कोण के समीप (पश्चिम की ओर) वास्तु पुरुष के बांयें हाथ की कलाई पर यह पद स्थित है।
6. राजयक्ष्मा : ॐ अभिगोत्राणि सहसागाहमानोदयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः। दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योस्माकं सेनाऽअवतुप्रयुत्सु।। राजयक्ष्मा नाम के देवता वास्तुचक्र में महत्वपूर्ण पद प्राप्त किये हुए हैं। ब्रह्म स्थान और पृथ्वीधर तथा मित्र नामक महान देवताओं के त्रिकोण बिंदु पर इनको स्थान प्राप्त है। यक्ष्मा रोग का संबंध फेफड़ों के रोगों से है। रुद्र चूँकि वायु के माध्यम से विचरण करते हैं और वायु में उनकी व्याप्ति रहती है। रुद्र के रौद्र रूप का उदाहरण ही राजयक्ष्मा है जो वायु के माध्यम से शरीर में फैलता है और शरीर को जर बना देता है। शरीर गतिहीन हो जाता है।
7. अर्यमा : ॐ अर्य्यम्णं बृहस्पतिमिदं दानाय चोदय । वाचं विष्णुं सरस्वतीं सवितारं च वाजिनँ स्वाहा।। ये देव माता अदिति के पुत्र हैं और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के अधिष्ठाता है। अर्यमा पितरों के अधिपति हैं और ये स्वयं नित्य पितर हैं। श्राद्ध पक्ष में इनको तुष्ट करने से समस्त पितरों (पितृ) की तुष्टि मानी जाती है। ये वंश परंपरा की रक्षा करते हैं और इनके प्रसन्न होने से कुल वृद्धि होती है। ये मित्रता के भी अधिष्ठाता हैं और इनके प्रसन्न होने से सात्विक मित्रता की प्राप्ति होती है।
यज्ञ में मित्र और वरुण के साथ ये स्वाहा से आहुति प्राप्त करते हैं तथा श्राद्ध में स्वधा का हव्य स्वीकार करते हैं। काश्यप होने से और अदिति पुत्र होने से इन्हें यज्ञ भाग प्राप्त होता है। वास्तु मंडल में इन्हें दक्षिण दिशा में स्थान मिलता है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में वास्तु का नींव परंपरागत महान साधु मायन को महत्व दिया जाता है वहीं उत्तर भारत में विश्वकर्मा को ही वास्तु की जिम्मेदारी दी जाती है।
प्राचीनतम सभ्यता में किसी भी इमारत के लिए वास्तुशास्त्र के दिशा-निर्देशों को लागू करना एक तरह से रिवाज़ था। इसकी छाप आज भी भारतीय वास्तुकला के खंडहरों और प्राचीन मंदिरों में देखी जा सकती है। इन दिनों हर प्रॉपर्टी के लिए वास्तु सलाहकार की जरूरत समझी जाती है जिससे समृद्ध जीवन सुनिश्चित हो सके। वास्तु पुरुष मंडल के बारे में अधिक जानने के लिए आगामी लेखों में विस्तार से जानकारी दी जाएगी। (क्रमशः) -सुमित व्यास, एम.ए (हिंदू स्टडीज़), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, मोबाइल – 6376188431