Sunday, November 17, 2024
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किस्सागोई : सुन कोरोना ! बैठ, तुझे एक कहानी सुनाऊं …

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इस कथा को सुन शायद तेरी आंख खुले और तू जान पाए इस मरुभौम के लालों के जज्बे, जज्बात, जिद्द, जोश और जुनून को। समझ पाए इसकी संकल्प शक्ति को। महसूस पाए इस मिट्टी के जीवट की आहट को। संगत कर पाए मन राग का और सुन पाए इसकी सरगम। तमाम विद्रूप के मेघाच्छादन में भी इसकी मुस्कराहट दे जाए शायद तुझे तेरे आक्रमण का जवाब।

सुन !

एक बार हमारे शहर में सर्कस वालों का एक दल आया। तंबू गाड़े, खूब प्रचार करवाया और जनता को लुभाया। एक से बढ कर एक खेल तमाशे और हैरतअंगेज कारनामों का भरपूर आकाश था जैसे। देखते ही देखते जाने कितने दिनों की अग्रिम टिकट बुकिंग हो गई। लोग हर शॉ के लिए टिकट पाने हेतु एक-दूसरे पर टूटे पड़ रहे थे। शेर से कुश्ती, गगनचुम्बी झूलों पर झूलती नृत्यांगनाओं का हवा में नर्तन, आग के गोलों के बीच से निकलना, और भी न जाने क्या-क्या अचंभित करने वाले, रोंगटे खड़े कर देने वाले खेल थे इसमें। पर दर्शकों को सबसे ज्यादा लुभा रहा था, वह था पेटू राम का पेट। हर शॉ में 20-30 किलो मिठाई बिना डकार चट कर जाता। दर्शक हंस-हंस कर लौट-पोट हो जाते।

खैर। हुआ यह कि एक दिन पेटूराम का किरदार निभाने वाले कलाकार के घर-परिवार में किसी का देहावसान हो गया। तो अचानक से उसे अपने पैतृक निवास जाना पड़ा। अब संकट यह हो गया कि सर्कस में पेटूराम की कला-अदायगी कौन करे? प्रबंधक ने तय किया कि इस एक खेल को ड्राप कर दिया जावे। यह समाचार जनता में पहुंचा और यदि सबने टिकटों के पैसे वापस मांग लिए तो क्या होगा! सर्कस का तो हाल-बेहाल हो जाएगा। आखिर किया जाए तो क्या? पेटूराम आए तो कैसे?

हमारे शहर का एक बूढा वहीं काम करता था। उसने सुझाव दिया कि शहर में ही रहने वाले मूसा महाराज से बात की जाए तो बात बन सकती है। खाने-पीने में वे भी पेटूराम से कमतर नहीं। 30-40 धामे राजभोग के तो यूंही खड़े-खड़े चट कर जाते हैं। अन्य कोई विकल्प भी न था। मूसा महाराज से बात हुई। कुछ ना-नुकर के बाद उन्होंने सर्कस में काम करने की हां भर दी। सब में फिर से उत्साह छा गया।

अगले दिन लगातार दो शॉ हिट रहे। पेटूराम के रूप में मूसा महाराज छा गए। तीसरा शॉ शुरू होने में आधा घंटा बचा था पर मूसा महाराज का कहीं पता न था। मैनेजर, मालिक, सब परेशान। मूसा महाराज गए तो गए कहां? ढूंढ-पड़ताल शुरू हुई। कई देर ढूंढने के बाद मूसा महाराज टेंट में एक कोने में बैठे दिखे। मैनेजर भाग कर उनके पास गया।

-कहां चले गए थे आप बिना कुछ कहे ही?

-अरे भाई ! रोटी तो खा लेने दो! यूं क्या काम से मार ही डालोगे? आप लोगों को तो अपने काम के अलावा कोई मतलब नहीं। रोटी के लिए ही तो काम करते हैं ना …!!!

अब सबका हाल हंस-हंस कर बुरा हो गया। राजभोग खाना तो काम है और रोटी शरीर का संचरण। कोरोना जी! ठीक वैसे ही हम यहां के वाशिंदे हैं। सरकार भले ही लॉक-डाउन कर दे, पर रविवार की छुट्टी की कमी तो हमें खलती ही है।

अब बता, क्या बिगाड़ेगा रे कोरोना तू हमारा? हमारी तो रग-रग में मस्ती है, हर मस्ती में संकल्प है, हर संकल्प में संस्कृति है और संस्कृति के हर अनुष्ठान में भूख-प्यास, अभाव-विचलन, अंधेरा-उजाला हर पन्ने की इबारत हम पढ-लिख और जी सकते हैं। उजालों की संतान हैं हम। अंधेरे में भी उजालों के सहारे चलते हैं ।

और सुन रे छद्म हमलावार-
ख्वाबों से जिसे जगाने सूरज खुद आता है
क्या बिगाड़े कोई उसका, जो जीवन को अर्थाता है ।

-रवि पुरोहित
बीकानेर (राजस्थान),
मो. 9414416252

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