बीकानेर में पुष्करणा ब्राह्मण समाज के ‘सामूहिक विवाह सावा ‘ को ‘ओलम्पिक सावा ‘ के नाम से भी जाना जाता है। यह सावा देश–दुनिया में अपने अनूठे आयोजन के लिए प्रसिद्ध है। प्रशासन ने भी बीकानेर पुराने शहर (परकोटे) को एक मंडप के रूप में मानते हुए इसे सामूहिक सावे का दर्जा दे रखा है। इस दिन बड़ी संख्या में शादियां होती है। बुजुर्गों के अनुसार सावा शब्द का अर्थ सामूहिक विवाह व सहयोग से जुड़ा है। पुष्करणा ब्राह्मण समाज में सामूहिक विवाह परंपरा की शुरूआत जैसलमेर जिले में 1300 वर्ष पहले हुई, जबकि बीकानेर में यह परंपरा लगभग 150 वर्ष पहले शुरू हुई।
एक ही दिन, एक ही लग्न में और एक ही गणवेष में शादी करने की इस रस्म के पीछे मूल उद्देश्य मितव्ययिता रही है। शादियों में होने वाले अनाप–शनाप खर्च पर अंकुश लगाने के लिहाज से शुरू हुई यह परंपरा अब क्षेत्र की पहचान भी बन गई है। समाज में चाहे कोई भी व्यक्ति किसी भी बड़े पद पर हो, कितने ही पैसे वाला या फिर चाहे वो कितना ही गरीब हो, लेकिन सामूहिक सावे में किसी को भी भिन्नता नजर न आती। यही इस सावे की सबसे बड़ी खूबसूरती मानी जाती है। समाज के हर तबके का व्यक्ति एक ही दिन एक ही समय और एक ही वेशभूषा यानि बींद का विष्णुगणवेष होने से समानता, समरूपता, एकता बनी रहे यही इस सामूहिक सावे की मूल भावना भी है। सादगी, सरलता, एकरूपता के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध पुष्करणा समाज का सामूहिक विवाह पूर्व में चार वर्षों के अंतराल से आता था। लिहाजा इसे ‘ओलम्पिक सावा‘ कहा जाने लगा। लेकिन बाद में समय की मांग को देखते हुए कुछ वर्ष पहले समाज ने हर 2 वर्ष से ये आयोजन करने का निर्णय लिया।
सावे के दिन पुष्करणा ब्राह्मण समाज के लोग चाहे देश के किसी भी कोने में हो, वे बीकानेर आने की हरसंभव कोशिश करते हैं। वर्तमान में कोलकाता, मुम्बई, रायपुर, हैदराबाद, बेंगलूरू व राजस्थान के विभिन्न जिलों से बड़ी संख्या में पुष्करणा समाज के अलावा बीकानेर से जुड़े विभिन्न वर्ग के लोग इस सामूहिक सावे के साक्षी बनने के लिए बीकानेर पहुंचते हैं।
इससे पहले दशहरे के दिन समाज के प्रबुद्धजन, विद्वान पंडित, ज्योतिषाचार्य मिलकर सावा तिथि पर शास्त्रार्थ कर सावा तिथि तय करते है। शास्त्रार्थ का आयोजन लालाणी व कीकाणी व्यास जाति द्वारा किया जाता है। धनतेरस के दिन सावा की संपूर्ण तिथियों व कार्यक्रम की घोषणा करते हैं। इससे पहले बीकानेर राजपरिवार के मुखिया या नरेश से सावे के लिए सांकेतिक अनुमति लेने की परंपरा का निर्वाह किया जाता है।
सावे में ऐसे बनते हैं बींद
पुष्करणा सावे में दुल्हा (बींद) विवाह के समय शरीर पर पीताम्बर धारण कर सिर पर खिड़किया पाग बांधता है। हाथ में लोहे का या आजकल चांदी का गेडिया लेकर लाल लोंकार की छांव में नंगे पांव भगवान विष्णु का रूप बनाकर शादी के लिए लक्ष्मी (दुल्हन) का वरण करने के लिए जाता है। आजकल दूल्हों पर आधुनिकता का प्रभाव पडऩे लगा है, लिहाजा बैण्ड बाजे, रथ, घोड़ी, सूट–बूट, डीजे व आतिशबाजी का चलन शुरू हो गया है, लेकिन समाज के अधिकांश लागे सावे के दिन इन सभी तामझामों से अब भी किनारा किए हुए है। पुष्करणा युवा शक्ति मंच व रमक झमक संस्था के पंडित छोटूलाल ओझा व प्रहलाद ओझा ‘भैंरू‘ द्वारा बारह गुवाड़ चौक में सावे के अवसर पर एक ही मंच सेवा व सुविधाएं, पौराणिक सामग्री उपलब्ध करवाई जाती है तथा विष्णु गणवेशी दूल्हों का सम्मान व यात्रा पैकेज आदि देकर सम्मानित किया जाता है।
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