जयपुर abhayindia.com राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के तत्वावधान में फेसबुक सृजनात्मक लाइव श्रृंखला के तहत शुक्रवार को ‘हरिशंकर परसाई की प्रासंगिकता’ विषय पर वरिष्ठ व्यंग्यकार फारूक आफरीदी ने संवाद किया।
उन्होंने कहा कि परसाईजी ने अपने समय, समाज,धर्म, राष्ट्र और राजनीति को आधार बनाकर लिखा किन्तु इन विषयों ने आज जिस रूप में विस्तार पाया है उसमें विद्रूपताओं, मूल्यहीनता, घटियापन,निम्नता, ओछापन, स्वार्थ, निकृष्टता, उद्दंडता, भयावहता, नंगापन, गुण्डापन, कमीनापन ने अपनी हदें पार कर ली हैं। ये समस्याएँ एक नयी चुनौती बनकर उभरी हैं। इसके बरक्स व्यंग्यकार को सामाजिक मूल्यहीनता, मनुष्यता के क्षरण और उसके बढ़ते जा रहे ढोंग और खोखलेपन पर गिद्ध दृष्टि रखकर अपने कर्तव्य का सही रूप में निरूपण करना होगा। व्यंग्यकार को समाज के शोषित और निर्बल वर्ग के पक्ष में खड़ा होना पड़ेगा।
आफरीदी ने वर्तमान समय की चर्चा करते हुए कहा कि आज आर्थिक उदारवाद और बाजारवाद ने मनुष्य को अपने नुकीले पंजों में फांस लिया है। हर व्यक्ति को लील लिया है। कोई अपना जीवन अपने तरीके से जी ही नहीं सकता। अन्नदाता किसान चिंता के विमर्श से बाहर हो चुका है। शासन की चिंताएं साम्राज्यवाद और अंतहीन विस्तारवाद की तृष्णाओं से लैस है।
आफरीदी ने कहा कि व्यंग्य के पुरोधा हरिशंकर परसाई की प्रासंगिकता आज भी उतनी है जितनी उनके समय में थी. आज असहमति की आवाज को दबाया और कुचला जा रहा है. जीवन मूल्य तिरोहित होते जा रहे हैं और झूठ का मुंह काला होने की बजाय उसका बोलबाला बढ़ रहा है। ऐसे कठिन समय में हताश, चिंतित और बेबस लोग चिंतनशील व्यंग्यकार की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। इस समय यदि व्यंग्यकार अपनी प्रतिबद्धता और रचनात्मक कर्त्तव्य से विमुख हुआ तो इतिहास कभी माफ़ नहीं करेगा। इस समय व्यंग्यकार की भूमिका विदूषक की बजाय एक एक्टिविस्ट की तरह होनी चाहिए।
आफरीदी ने कहा जैसा कि परसाई जी पहले ही चेता चुके हैं कि युवा व्यंग्यकार को काफी हाउस में बैठ बहस करने की बजाय जन के बीच बैठकर उसकी तड़फ को देखना, अनुभूत करना, उसके जख्म पर मरहम लगाना, निरीह होते जा रहे इन्सान को वाणी देने के साथ अपराध के दोषी लोगों को लताडने का काम अपनी कलम से करना होगा। ऐसे कठिन समय में व्यंग्य के नाम पर हम इधर उधर की बात करके अपने व्यंग्य कर्म के साथ चीट करते हैं। इस दृष्टि से यह व्यंग्यकारों के आत्मलोचन का भी समय है।
परसाई, शरद जोशी और रवीन्द्र त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और उनके समकालीन लेखक व्यंग्य के विश्वविद्यालय थे। आज ये विश्वविद्यालय डॉ ज्ञान चतुर्वेदी, डॉ हरीश नवल और डॉ प्रेम जनमेजय के सान्निध्य में या उनकी प्रेरणा से और पुष्पित और पल्लवित हो रहे हैं। वर्तमान में ऐसे अनेक लेखक हैं, जो व्यंग्य की समृद्ध परंपरा को अपनी अनूठी शैली, भाषा और विचार से जनोन्मुखी दृष्टि के साथ व्यंग्य लिख रहे हैं। वर्तमान व्यंग्य की सार्थकता को लेकर समय-समय पर कई टिप्पणियां होती रही हैं लेकिन वर्तमान हमें निराश भी नहीं करता। व्यंग्यकार को ठकुर सुहाती नदी में डोल्चे उंडेलने से बाज आकर सत्य का साथ देना होगा। समय ही तय करता है कि कौन सा लेखन टिका रहेगा और कौन सा ख़ारिज कर दिया जायेगा।