Sunday, June 8, 2025
Hometrendingप्राचीन काल में देवालय ही थे औषधालय, जानें- कैसी सुंदर थी वो...

प्राचीन काल में देवालय ही थे औषधालय, जानें- कैसी सुंदर थी वो व्‍यवस्‍था…

Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad Ad

भारत के प्राचीन काल में चिकित्सा और आध्यात्म एक-दूसरे से अलग नहीं थे। जहां आज अस्पताल और मंदिर अलग-अलग संस्थान हैं, वहीं, वैदिक व पौराणिक युग में देवालय ही औषधालय हुआ करते थे। उस युग में मंदिर केवल पूजा-प्रार्थना का स्थल नहीं, बल्कि जीवन रक्षा और आरोग्य दान का केंद्र थे। यह न केवल धार्मिक व्यवस्था थी, बल्कि वैज्ञानिक और समाजोपयोगी परंपरा भी थी।

मंदिरों में होता था रोगोपचार

ऋग्वेद, अथर्ववेद और चरक संहिता जैसे ग्रंथों में हमें स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि देवताओं की उपासना के साथ-साथ चिकित्सा भी एक नियमित प्रक्रिया थी। मंदिरों के गर्भगृह के पास आयुर्वेदाचार्य रहते थे, जो पूजा के साथ औषधीय वनस्पतियों द्वारा चिकित्सा भी करते थे। मंदिरों की मूर्तियाँ और वास्तुशास्त्र भी औषधीय और मानसिक स्वास्थ्य के कारक माने जाते थे।

औषधीय वाटिकाएं– "नैवेद्यम्" ही औषधि

प्राचीन मंदिरों के प्रांगण में औषधीय वनस्पतियों से युक्त “नन्दनवन” या “देववाटिका” हुआ करती थी, जहाँ तुलसी, अश्वगंधा, ब्राह्मी, हल्दी, नीम आदि के पौधे होते थे। इनका प्रयोग ना केवल नैवेद्य के रूप में, बल्कि औषधीय प्रयोगों में भी होता था। कई बार पुजारी जन अपने श्रद्धालुओं को इन औषधियों का काढ़ा या चूर्ण भी वितरित करते थे।

ध्वनि, धूप और दीप – 
एक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति

घंटी की ध्वनि, शंखनाद, मंत्रोच्चार और दीप-धूप का प्रयोग मंदिरों में केवल धार्मिक नहीं था, बल्कि यह एक प्रकार की ध्वनि एवं गंध चिकित्सा थी। आज वैज्ञानिक मानते हैं कि मंत्रों की ध्वनि तरंगें मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र पर सकारात्मक प्रभाव डालती हैं।

उदाहरणस्वरूप मंदिर...
  • तमिलनाडु के चिदंबरम मंदिर में नटराज की मूर्ति के दर्शन को मानसिक रोगियों के लिए उपयोगी माना जाता था।
  • उत्तराखंड के नीम करोली बाबा मंदिर में आज भी भक्त मानसिक शांति और स्वास्थ्य के लिए आते हैं।
  • राजस्थान के भैरव मंदिरों में विशेष रूप से तांत्रिक पद्धति से जड़ी-बूटियों से रोग निवारण किया जाता था।
आधुनिकता में भूली परंपरा

ब्रिटिश काल में जब चिकित्सा को “पश्चिमी मॉडल” में ढाला गया, तब मंदिर आधारित चिकित्सा प्रणाली को असंगत मान लिया गया। परंतु अब पुनः ‘होलिस्टिक’ या ‘समग्र चिकित्सा’ की ओर लौटने की वैश्विक प्रवृत्ति देखी जा रही है, जो हमारे वैदिक ज्ञान की ही पुनर्पुष्टि है। भारत की चिकित्सा परंपरा केवल शारीरिक उपचार तक सीमित नहीं थी। यह मन, तन और आत्मा – तीनों का समन्वित उपचार थी। मंदिर इस त्रैतीयक उपचार के केंद्र थे। यह न केवल आध्यात्मिक धरोहर है, बल्कि चिकित्सा विज्ञान की भी महान विरासत है, जिसे पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। -अंजना शर्मा (शंकरपुरस्कारभाजिता) पुरातत्वविद्, अभिलेख व लिपि विशेषज्ञ, प्रबन्धक, देवस्थान विभाग, जयपुर 

Ad Ad Ad Ad Ad
- Advertisment -

Most Popular