हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, इन पांच तत्वों से सृष्टि का निर्माण हुआ है। वास्तु शास्त्र में इन्हीं पांच तत्वों का संतुलन मनुष्य को स्वास्थ्य वैभव के साथ हर प्रकार के सांसारिक सुख प्रदान करता है। इन्ही तत्वों में से एक जल है। जल ही जीवन है, जल का सही प्रयोग एवं वास्तुशास्त्र के अनुसार जल की निकासी किस दिशा में होनी चाहिए तथा किस दिशा में बोरिंग तथा जल का भण्डारण कहां होना चाहिए, इन सब बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए एवं भवन निर्माण आरम्भ करने से पूर्व जल की समुचित व्यवस्था करना अनिवार्य है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जल बहुत ही आवश्यक है घर में यदि जल कुंड वास्तु के अनुसार हो तो यह हमारे जीवन में ख़ुशियों की वर्षा कर देता है वही दूसरी ओर यदि जल कुंड वास्तु सम्मत स्थान पर नहीं हो तो यह समस्या का कारण बनता है।
वराहमिहिर के अनुसार, ईशान कोण में जल साधन पुष्टि देने वाला होता है। ईशान कोण में स्थित जलाशय त्वरित परिणाम देने वाला होता है अतः यदि कोई व्यक्ति अपनी आयु के अधिक वर्षों में अर्थात् लगभग प्रौढ़ावस्था की आयु में भवन या व्यावसायिक प्रतिष्ठान का निर्माण करता है तो उसे जलाशय ईशान कोण में ही बनाना चाहिए। ईशान कोण में जलाशय का निर्माण करते समय यह बात विशेष रूप से ध्यान रखनी चाहिए कि वास्तु पुरुष के सिर का कोई अंग अथवा मर्म पीड़ित न हों।
कूपे वास्तोर्यध्यदेशेऽर्थनाशस्त्वैशान्यादौ पुष्टिरैश्वर्य वृद्धिः। सूनोर्नाशः स्त्री विनाशो मृतिश्च सम्पतीड़ा शत्रुतः स्याच्च सौरव्यम॥
भूखंड के पूर्वी भाग में जलीय व्यवस्था होने से सुख शांति और धन की प्राप्ति होती है। आग्नेय कोण में जल की व्यवस्था होने से मुखिया के पुत्र को कष्ट होता है।
अगर भूखंड की दक्षिण दिशा में जल व्यवस्था है तो उस घर में रहने वाली स्त्री को कष्ट होगा। अगर आपने नैऋत्य कोण में जल की व्यवस्था की है तो उस घर के स्वामी के लिए यह मृत्यु तुल्य कष्ट के समान होता है।
कई घरों में देखा जाता है कि जल कुंड के समीप पितरों का स्थान बनाया जाता है जिसमें जल व दूध भरा जाता है जिससे कि वह प्रसन्न रहें। वास्तु रत्नाकर में कहा गया है “जलकुंडं पितृस्थाने तु यः करोति स उच्चताम् पितृदेवता सहायत्तां तेन कुलं प्रजायते” इसका आशय है जो व्यक्ति जलकुंड के पास पितृ स्थान में बनाता है, वह उच्चता को प्राप्त होता है। पितृदेवता उसकी सहायता करते हैं और उसके कुल में वृद्धि होती है। इसी प्रकार वास्तु ग्रन्थ मानसार में कहा गया है – “पितृस्थाने जलकुंडं तु यः करोति सुखी भवेत् पितृदेवता तुष्टाः स्युः कुलं तेन प्रजायते”। इसका आशय है “जो व्यक्तिपितृ स्थान में जलकुंड बनाता है, वह सुखी होता है। पितृदेवता तुष्ट होते हैं और उसके कुल में वृद्धि होती है।”
अनुभव में आया है कि इससे काफ़ी हद तक वास्तु दोष से बचा जा सकता है। ध्यान देने योग्य बात है कि पितृ श्राद्ध अवश्य ही करना चाहिए। “श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्” ‘श्राद्ध’ से आशय है, श्रद्धासे जो कुछ दिया जाय। पितृपक्ष में श्राद्ध करनेसे पितृगण वर्षपर्यन्त प्रसन्न रहते हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, उत्तिष्ठ पुरुषव्याघ्र क्रियतामुदकं पितुः। अहं चायं च शत्रुघ्नः पूर्वमेव कृतोदकौ।। प्रियेण किल दत्तं हि पितृलोकेषु राघव। अक्षयं भवतीत्याहुर्भवांश्चैव पितुः प्रियः।। इसका आशय है – (भरत ने चित्रकूट में पहुँचने पर राम से कहा) हे नरश्रेष्ठ! अब उठो और पिता जी का तर्पण करो! मैं और यह शत्रुघ्न तो पहिले कर ही चुके हैं। हे राघव ! प्रियजन जो कुछ देते हैं वह पितृलोक में पितृ के लिए अक्षय होता है ऐसा शिष्टजन कहते हैं। सो आप तो पिता जी के अति प्रिय पुत्र हो। विश्वकर्मा प्रकाश में कहा गया है “जलकुंडं यस्य गृहस्थः पूर्वदिक् समनंतरम् स सर्वसिद्धिमाप्नोति राजयोगमवाप्नुयात्” इसका आशय है जिसके घर में पूर्व दिशा में जलकुंड होता है, वह सभी सिद्धियों को प्राप्त होता है और राजयोग को प्राप्त होता है।
लब्बोलुआब यह कि सभी वास्तु ग्रन्थों में जलकुंड के वास्तु के लिए उत्तर, पूर्व और ईशान्य दिशाएँ शुभ मानी गई हैं। सनद रहे सही बिन्दु के ईशान या अन्य दिशाओं का निर्धारण करने के लिए योग्य वास्तु शास्त्री का मार्गदर्शन लेना उचित रहता है। -सुमित व्यास, एम.ए (हिंदू स्टडीज़), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, मोबाइल – 6376188431