Tuesday, March 18, 2025
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शिवावतार भगवान श्रीमद् आदि शंकराचार्य (जन्म जयंती पर विशेष )

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आदि शंकराचार्य स्वयं भगवान शिव के अवतार तथा महान दार्शनिक एवं धर्म प्रवर्तक थे। आदि शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी 2631 (युधिष्ठिर संवत के अनुसार) कालडी़ गांव केरल में हुआ। इन्होंने आचार्य गोविंद भगवत्पाद से दीक्षा ग्रहण की। उनके पिता का नाम शिव भट्ट तथा माता का नाम अयंबा था। भगवान शिव की आराधना से इन्हें पुत्र रूप में प्राप्त कर माता-पिता ने इनका नाम शंकर रखा जो 8 वर्ष की अवस्था में ही प्रकांड विद्वान हो गया। आचार्य ने मात्र 13 वर्ष की अवस्था में ही प्रस्थान त्रयी पर भाष्य किया। आचार्य ने अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। सिद्ध वाक्य के रूप में अहम् ब्रह्मास्मि, प्रज्ञानम ब्रह्म, तत्वमसी जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य को जगत में स्थापित किया। आदि शंकराचार्य ने 4 पीठ स्थापित किये जिससे सनातन को स्थापित किया जा सका-

१- उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ

२-पश्चिम में द्वारिका शारदा पीठ

३-दक्षिण में श्रृंगेरी पीठ

४-पूर्व में जगन्नाथ पुरी गोवर्धन पीठ

जिस समय भगवान् श्रीशङ्कराचार्य आविर्भूत हुए थे, उस समय देश में सद्धर्म का अनुष्ठान प्रायः लुप्त हो गया था। केवल इतना ही नहीं, उसका स्वरूपज्ञान भी उच्चकोटि के इने-गिने महापुरुषों में ही सीमित रह गया था। परमात्मा की ज्ञान शक्ति ने ही उस अज्ञानप्रधान समय में श्रीशङ्कराचार्य के रूप में प्रकट होकर देशव्यापक अज्ञानान्धकार को दूर कर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक वैदिक धर्म-कर्म का एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर दिया था। ‘शङ्करः शङ्करः साक्षात्’ इत्यादि वचनों के अनुसार शङ्कराचार्य लोकगुरु भगवान् शङ्कर के अवतार थे, यह सर्वत्र प्रसिद्ध ही है।

कुछ लोगों को यह संदेह हो सकता है कि भगवान् शङ्कराचार्य ने आविर्भूत होकर ऐसा कौन-सा अभिनव सिद्धान्त प्रकट किया या धर्म का प्रचार किया, जिससे यह प्रतीत हो सके कि उन्होंने जगत्‌ का अवतारोचित अभूतपूर्व तथा लोकोत्तर कल्याण किया था? वस्तुतः अद्वैतवाद अनादिकाल से ही तत्-तत् अधिकारियों के अन्दर प्रसिद्ध था, फिर उन्होंने प्रस्थानत्रय पर भाष्य का निर्माण कर अथवा अपने और किसी व्यापार से कौन-सा विशेष कार्य सिद्ध किया?

इस शङ्का का समाधान यह है कि यद्यपि अधिकार के भेद के अनुसार अद्वैत, द्वैत आदि मत अनादिकाल से ही प्रसिद्ध हैं तथापि विशुद्ध ब्रह्माद्वैतवाद अवैदिक दार्शनिक सम्प्रदाय के आविर्भाव से एक प्रकार से लुप्त-सा हो गया था। योगाचार तथा माध्यमिक सम्प्रदाय में एवं किसी-किसी तान्त्रिक सम्प्रदाय में अद्वैतवाद के नाम से जिस सिद्धान्त का प्रचार हुआ था वह विशुद्ध औपनिषद ब्रह्मवाद से अत्यंत भित्र है। वैदिक धर्म के प्रचार तथा प्रभाव के मन्द हो जाने से समाज प्रायः श्रुतिसम्मत विशुद्ध ब्रह्मवाद को भूलकर अवैदिक सम्प्रदायों द्वारा प्रचारित अद्वैतवाद को ग्रहण करने लगा था। हीनयान तथा महायान के अन्तर्भूत अष्टादश सम्प्रदाय, शैव, पाशुपत कापालिक, कालामुख आदि माहेश्वर सम्प्रदाय, पाञ्चरात्र, भागवत आदि वैष्णवसम्प्रदाय तथा गाणपत्य, सौर आदि विभिन्न धर्मसम्प्रदाय भारतवर्ष के विभिन्न देशों में फैल गये थे। स्थानविशेष में आर्हत सम्प्रदाय का प्रभाव भी कम न था। देश के खण्ड-खण्ड में विभक्त होने के कारण तथा मनुष्यों की रुचि और प्रवृत्ति में विकार आ जाने के कारण श्रौतधर्म निष्ठ एवं श्रौतधर्मसंरक्षक सार्वभौम चक्रवर्ती राजा भी कोई नहीं रह गया था, जिसके प्रभाव तथा आदर्श से जनसमुदाय शुद्ध धर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त हो सकता।

ऐसी परिस्थिति में भगवान् श्रीशङ्कराचार्य ने अपने ग्रन्थों में वेदानुमत निर्विशेष अद्वैत वस्तु का शास्त्र तथा युक्ति के बल से दृढ़तापूर्वक प्रतिपादन कर केवल विविध द्वैतवादों का ही नहीं, अपितु भ्रान्त अद्वैतवाद का भी खण्डन ही किया है। शुद्ध वैदिक ज्ञान मार्ग का अन्वेषण करने वाले विरल, जिज्ञासु मुमुक्षु पुरुषों के लिये यही सर्वप्रधान उपकार माना जा सकता है क्योंकि भगवान् शङ्कर-जैसे लोकोत्तर धीशक्तिसम्पन्न पुरुष को छोड़कर दूसरे किसी के लिये तत्कालीन दार्शनिकों के युक्ति जाल का खण्डन करना सरल नहीं था। केवल इतना ही नहीं, अद्वैतसिद्धान्त का अपरोक्षतया स्वानुभव करके जगद्‌ में उसके प्रचार के लिये तत्तत् देश और काल के अनुसार मठादिस्थापन द्वारा ज्ञानोपदेश का स्थायी प्रवन्ध करना भी साधारण मनुष्य का कार्य नहीं था।

पारमार्थिक, व्यावहारिक तथा प्रतिभासिक भेद‌‌ से सत्ताभेद की कल्पना करके भगवान् श्रीशङ्कराचार्य ने एक विशाल समन्वय का मार्ग खोल दिया था। वह अपने-अपने अधिकार के अनुसार वेदमार्गरत निष्ठावान् साधक के लिये परम हितकारी ही हुआ; क्योंकि व्यवहार भूमि में अनुभव के से अनुसार द्वैतवाद को अङ्गीकार करते हुए और तदनुरूप आचार, अनुष्ठान आदि का उपदेश देते हुए भगवान् ने दिखाया है कि वस्तुतः वेदान्तोपदिष्ट अद्वैतभाव‌ से शास्त्रानुमत को द्वैतभाव का विरोध नहीं है; क्योंकि शुद्ध ब्रह्मज्ञान के उदय से संस्कार या वासना की निवृत्ति, विविध प्रकार के कर्मों की निवृत्ति तथा चित्त का उपशम हो जाने पर अखिल द्वैतभावों का एक परमाद्वैतभाव में ही पर्यवसान हो जाता है, परंतु जब-तक न इस प्रकार परा ब्रह्मविद्या का उदय न हो तब तक।

द्वैतभाव को मिथ्या कहकर द्वैतभावमूलक शास्त्रविहित उपासना आदि का त्याग करना उनके सिद्धान्त के विरुद्ध है; क्योंकि जो अनधिकारी है अर्थात् जिसको आत्मानात्म विवेक नहीं हुआ है, जिसके चित्त में पूर्णरूप से वैराग्य का उदय नहीं हुआ है, जो साधनसम्पन्न नहीं है और जिसमें मुक्ति की इच्छातक उदित नहीं हुई है, उसके लिये वेदान्तज्ञान का अधिकार तक नहीं है। कर्म से शुद्धचित्त होकर मैं उपासना में तत्पर होने से धीरे-धीरे ज्ञान की इच्छा तथा उसका अधिकार उत्पन्न हो जाता है। अतएव व्यवहारभूमि‌‌ में अपने-अपने प्राक्तन संस्कारों के अनुसार जो जिस प्रकार द्वैत अधिकार में रहता है, उसके लिये वही ठीक है। भगवान् श्रीशङ्कराचार्यजी का कहना यही है कि वह शास्त्रसम्मत होना चाहिये, क्योंकि उच्छास्त्रित (शास्त्रविपरीत) पौरुष से उन्नति की आशा नहीं है।

ये शङ्कररूपी शङ्करावतार वैदिक धर्मसंस्थापक, परमज्ञानमूर्ति, प्रज्ञा तथा करुणा के विग्रहस्वरूप महापुरुष वैदिकधर्मावलम्बी मनुष्यमात्र के लिये सर्वदा प्रणम्य हैं। -डॉ. मनीषा शर्मा, विशिष्ट अतिथि प्राचार्य, राजस्थान शिक्षक प्रशिक्षण विद्यापीठ जयपुर

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