वास्तु देवता की प्राण प्रतिष्ठा, किसी नए भवन के निर्माण से पहले की जाने वाली पूजा है। वास्तु देवता को भूमि का देवता माना जाता है इसलिए, नए भवन के निर्माण से पहले वास्तु देवता की पूजा की जाती है। जैसा कि पूर्व के आलेख में बताया गया था कि वास्तु पुरुष पर देवतागण निवास करते है। सभी देवताओं के सम्मान को रखते हुए बने भवन में गृह-प्रवेश के समय आकाश पद पर वास्तुदेव की प्रतिष्ठा कर दी जाती है और भवन की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाती है। भवन जीवन्त हो जाता है। वास्तुदेव सुखपूर्वक भवन में निवास करने का आशीर्वाद भवन मालिक को देते हैं।
13. गंधर्व : ॐ प्रतद्दोचेदमृतंनुविद्वान्गन्धर्बोधमबिभृतंगुहासत् । त्रीणिपदानि निहितागुहास्य यस्तानिवेदसपितुः पितासत्। वास्तु मण्डल में तथा सर्वतोभद्र मण्डल में गंधर्व नाम की देवजाति का वर्णन मिलता है। दक्षिण दिशा में यम के पास ही गंधर्व पद को स्थान मिला है। जिसको भी गंधर्व विद्याओं की सिद्धि करनी है वह इस पद में अपनी स्थापना करे और वहीं, अभ्यास करें। वास्तु मण्डल मेंअप्सराओं को अलग से स्थान प्राप्त नहीं है अतः उपरोक्त तर्कों के आधार पर गंधर्व के पदविन्यास से ही अप्सराओं की सिद्धि की जा सकती है।
14. भृंगराज : ॐ सुपर्णः पार्जन्य आर्तिर्वाहसो दर्विदाते वायवे बृहस्पतये वाचस्पतये पैङ्गराजोऽलजः आन्तरिक्षः प्लवोमद्रर्मत्स्यस्ते नदीपतये द्यावा पृथिवीयः कूर्मः। शब्द ग्रंथों में यह शब्द ‘भांगरा’ (नशीली वनस्पति) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भंग नाम भौरों का भी है और भृंगराज का अर्थ निकलता है, ‘भौरों के राजा।’ गंधर्व के समीपस्थ यह पद संभवतः अप्सराओं का बोधक है। गंधर्व और अप्सराओं को लगभग अधिकांश मण्डलों में एक साथ या समीपस्थ प्रतिष्ठा मिली है। भ्रमर का संबंध काम से है और काम की अभिव्यक्ति का माध्यम आदिकाल से अप्सराएं रही हैं। वास्तुचक्र में वास्तु पुरुष की दांयी जंघा वाले पद पर इनकी प्रतिष्ठा है और इस स्थान से भी गंधर्व विद्याओं की सिद्धि की जाती है।
15. मृग : ॐ तद्विष्णोः परमं पर्दै सदापश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् । मृग का अर्थ सामान्यतः हिरण से लिया जाता है। वास्तु चक्र में मृग का संबंध मार्गशीर्ष मास से लिया जाना अधिक अनुकूल है क्योंकि इस चक्र में द्वादश आदित्यों की स्थापना है। पुराणों में द्वादश आदित्य को वर्ष के द्वादश महीनों की सामर्थ्य बताया गया है और सूर्यदेव की तपन के विविध स्तरों को ही द्वादश आदित्य माना गया है। मार्गशीर्ष मास के स्वामी द्वादश आदित्यों में से ‘अंशु’ माने जाते हैं और इनके सहयोगियों के रूप में ऋषियों में कश्यप ऋषि, अप्सराओं में उर्वशी, गंधर्वों में ऋतसेन, राक्षसों में विद्युत्छत्रु, भल्ल तार्क्ष्य और महाशंख नामक नाग का उल्लेख मिलता है। वास्तु चक्र में यह पद वास्तु पुरुष के दायीं बैठक (कूल्हा) पर स्थित है।
16. नभ : ॐ वयं सोम व्रते तवमनस्तनूषुबिभ्रतः । प्रजावन्तः सचेमहि। नभ देवता आकाश के रूप में अवस्थित हैं। इन्हें अंतरिक्ष, व्योम या द्यौ भी कहा जाता है। उषा इन्हीं ‘द्यौ’ की पुत्री मानी गई हैं। पंचभूतों में एक नभ या आकाश पंचलोकपालों में से एक माने गए हैं। मस्त्य पुराण के एक उल्लेख के अनुसार-भगवान शंकर की आठ मूर्तियों में एक इन्हें माना गया है। वास्तुचक्र में अग्निकोण से पूर्व दिशा की ओर बढ़ते ही इनका पद है। वायु की उत्पत्ति का कारण शुद्ध आकाश को माना गया है और इसके माध्यम से नादब्रह्म की व्याप्ति है। ये परमात्मा के ही स्वरूप हैं तथा इनके बिना किसी का भी सहअस्तित्व संभव नहीं है। ये पंचतत्वों में प्रमुख और अन्य तत्वों के आश्रय स्थान हैं।
वास्तु चक्र में यह पद अग्निकोण के समीप (पूर्व की ओर) अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह पद आकाश संज्ञक है, शून्य है अर्थात् देव रहित है। वास्तु पुरुष की उत्पत्ति के समय ब्रह्माजी के आदेश पर जब सभी देवताओं ने वास्तु पुरुष के शरीर पर अपना-अपना स्थान ग्रहण किया तब वास्तु पुरुष के दाहिने हाथ के पोंचे पर (वास्तु पुरुष के अत्यंत उग्र स्वभाव के कारण) किसी भी देवता ने ग्रहण नहीं किया। ब्रह्माजी ने फिर यह नियम बनाया कि यह भाग देवता रहित है और वास्तु पुरुष अपने दाहिने हाथ का किसी भी भाँति प्रयोग करने में सक्षम हैं।
लौकिक अवधारणा के अनुसार, शिलान्यास के उपरांत सम्पूर्ण भवन के निर्माण होने तक, यदि निर्माणकर्ता द्वारा किसी देवता का अपमान (वास्तु नियमों का उल्लंघन) किया गया तो ये वास्तु पुरुष उस निर्माणकर्त्ता को दण्ड देंगे एवं जिस निर्माणकर्त्ता ने सभी देवताओं का सम्मान करते हुए घर का निर्माण किया तो उसे वास्तु पुरुष अपने इसी सीधे हाथ से आशीर्वाद देंगे। सभी देवताओं के सम्मानपूर्वक निर्मित भवन में गृह-प्रवेश के समय इसी आकाश पद पर वास्तुदेव की प्रतिष्ठा कर दी जाती है और भवन की प्राण-प्रतिष्ठा हो जाती है। भवन जीवन्त हो जाता है और वास्तुदेव प्रसन्नता के साथ सुखपूर्वक भवन में निवास करने का आशीर्वाद देते हैं। -सुमित व्यास, एम.ए (हिंदू स्टडीज़), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, मोबाइल – 6376188431