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भारतीय प्राच्यविद्या को संरक्षित करने के लिए अपना सर्वस्व त्याग करने वाले दो महापुरुषों की कहानी है कहा जाता है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता या यूं कहें किसी भी सफ़लता के पीछे व्यक्ति हो या संस्था किसी ना किसी का मूक त्याग होता है। श्री अभय जैन ग्रंथालय के पीछे अगर चंद नाहटा का त्याग व उनकी सफ़लता के पीछे भतीजे भंवरलाल नाहटा के त्याग की मिसाल है। आज ये राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर रहे है। ये स्वर्णिम इतिहास है श्रीअभय जैन ग्रंथालय का।
प्राचीन ग्रंथागारों की उपयोगिता आज इतनी सुविदित है कि इस विषय में कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं। देश में जितने ग्रंथागार हैं उनमें से अधिकांश राजकीय संरक्षण-प्राप्त है। कुछ का संचालन विविध संस्थाओं द्वारा होता है और इने-गिने भण्डार ऐसे हैं जो व्यक्तिगत प्रयासों के परिणाम हैं। श्रीअभय जैन ग्रंथालय व्यक्तिगत प्रयास का एक सुन्दर प्रतिफल है जिसने देश-विदेश के दिग्गजों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है।
लगभग सौ वर्ष पूर्व श्रीजिनकृपाचन्द्रसूरिजी जैसलमेर के प्राचीन ज्ञान भंडार का जीर्णोद्धार करके चातुर्मास के लिए बीकानेर पधारे और अपने प्रवचन में उन्होंने प्राचीन ग्रंथों एवं पाण्डुलिपियों के संरक्षण पर बल दिया ताकि ज्ञान राशि का लोप न हो जाए। आचार्यश्री के श्रोता तो सहस्रों थे, पर उनके वचनों को सहेज कर हृदयंगम करने वाले केवल दो ही व्यक्ति थे एक चाचा, दूसरा भतीजा। ये चाचा-भतीजा कांधलजी-बीकोजी के समान किसी भूखण्ड पर आधिपत्य जमा कर वहां अपना राज्य स्थापित करने के अभिलाषी नहीं, प्रत्युत तीव्र गति से निरन्तर काल-कवलित हो रही ग्रंथ-राशि को संरक्षण देकर उसके दिवंगत स्रष्टाओं को अमरत्व प्रदान करने को आतुर थे-चाचा, अगरचन्द नाहटा, भतीजा, भंवरलाल नाहटा।
उस समय इस नाहटा युगल की आयु सत्रह साढ़े सोलह वर्ष थी-एक आयु जिसमें समस्त उमंगों के साथ उन दिनों गार्हस्थ्य-जीवन में प्रवेश की तैयारी करते हुए स्वर्णिम स्वप्नों का संसार बसाया जाना था। लेकिन, इसके सर्वथा विपरीत, सांसारिक सुखों को गौण समझते हुए ये दोनों युवक प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण-कार्य में उत्साह एवं जोश के साथ जुट गए। एक ऐसी रुचि, जिसके कारण इनके साथी लोग इन्हें संसार से उपकारक साधु-सन्तों के समान समझ कर अपनी मित्रता करके धन्य समझने लगे।
अब समस्या थी ग्रंथ-संग्रह के श्रीगणेश की। ग्रंथ उपलब्ध कहां से होगे? संयोगवश बम्बई हाईकोर्ट के एक वकील मोहनलाल दलीचन्द का ‘कविवर समय सुन्दर’ निबन्ध नाहटों ने देखा। आश्चर्य हुआ कि एक वकील बम्बई में बैठ कर समयसुन्दर पर इतनी विस्तृत जानकारी दे सकता है, तो हम पीछे क्यों रहेंगे? प्रोत्साहन का कारण था-रांगड़ी चौक में एक उपाश्रय का खुलना जो बड़ा खरतर- गच्छ उपासरा कहलाता है। इससे प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन का सुयोग सहज था। इस ग्रंथालय का अवलोकन करते समय युवकों का हौसला बढ़ा और वे द्विगुण उत्साह के साथ अपने कार्य में तल्लीन हो गए। सर्व प्रथम समयसुन्दर की खोज करते समय अनेक ग्रंथों को देखा। जिन कवियों की रचनाएं श्रेष्ठ लगतीं उनकी नकल करके अपने संग्रह के लिए तैयार कर लेते। कवि के संबंध में जानकारी देनेवाली आवश्यक टिप्पणियां भी अपनी नोट बुकों में उतार लेते।
उन्हीं दिनों नाहटा बंधुओं ने देखा कि बड़े उपासरे में प्राचीन ग्रंथों के खंतड़ रखे हुए थे और उनका उपयोग ठाठे बनाने को किया जाने वाला था। यति मुकनचन्दजी आदि ने उस ढेर में से काम के कागज छांट कर अपने अधिकार में रख लिए थे। नाहटों ने उनको क्रय कर लिया। परिणाम सुखद निकला- काफी सामग्री उस ढेर में से प्राप्त हो गई। उसके बाद जहां कहीं भी ऐसी सामग्री की जानकारी मिलती, वे उसे लेने का प्रयत्न करते, निःशुल्क अथवा खरीद कर। बीकानेर से बाहर जाना पड़ता तो वहां भी जाते पर हर हालत में प्राचीन पाण्डु-लिपियों की रक्षा का प्रयत्न करते। इस प्रकार की सामग्री में ग्रंथों के बिखरे हुए पन्ने हो अधिकांश में होते थे। उन्हें ये दोनों अध्यवसायी युवक तरतीबवार रख कर ग्रंथ को पूरा बनाने की कोशिश करते। जब ग्रंथ पूरा हो जाता तो इनके हर्ष का पारावार नहीं था, पर इस प्रकार से पन्ने जोड़-जोड़ कर इन्होंने अनेक बहुमूल्य ग्रंथों की रक्षा कर उन्हें अपने संग्रह में सुरक्षित रख लिया। आज 150 लाख से अधिक ग्रंथों का संग्रह है। इस संग्रह के साथ ही चाचा भतीजे की सारस्वत साधना भी निरंतर चलती रही। प्रकाशित, अप्रकाशित साहित्य का जो महासागर दोनों ने खड़ा किया आज अचंभित करता है।
10 हज़ार से अधिक शोध विषयक लेख जिसमें किसी भी विषय को नहीं अछूता नहीं छोड़ा। अनेकों मह्त्वपूर्ण ग्रंथों की समीक्षा संपादन एक लिखता दूसरा प्रूफ देखता एक साहित्य एकत्र करता दूसरा अध्ययन करता। इस ज्ञान सामंजस्यपूर्ण जोड़ी ने आज की पीढ़ी के सामने इतने समृद्ध ग्रंथालय का व प्रकाशन का भंडार शोधार्थियों प्रबुद्धजनों के उपयोग के लिए दिया है। इन महान विभूतियों को देश नमन करता है। -अंजना शर्मा (शंकरपुरस्कारभाजिता), पुरातत्वविद्, अभिलेख व लिपि विशेषज्ञ प्रबन्धक, देवस्थान विभाग, जयपुर, राजस्थान सरकार
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